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बुधवार, 17 दिसंबर 2014

कितना मुश्किल है उन पलो को जीना जहाँ हर पल मौत का कोलाहल हो.ऐसा क्या हो गया कि दर्द की जगह नफरत ने ले ली। इतनी नफरत की निर्दोष बच्चों की ज़िन्दगी को उसकी कीमत  देनी पड़ी। 
तुम्हारा खून इतना गाढ़ा -
और इतना काला  न होता। 
कि नसों में ऐसे जम जाता, 
अहसासों से परे  होकर। 
तुम सोच ही न पाये , 
दर्द एक माँ  का ,
पिता की तन्हाई ,
बहन की आँखों का प्यार,
घर के हर कोने की आँखों का इंतज़ार। 
अगर तुम्हारा यही खून,
 थोड़ा पतला ,
और लाल होता,
तो बहता और समझता ,
रिश्तों का दर्द ,
उसी अहसास के रहते शायद ,
तुम्हारे हाथ काँपते ,
और रुक जाते एक पल ,
फिर शायद वो पल ही न आता ,
अगर तुम्हारा खून इतना गाढ़ा -
और काला  न होता। 










शनिवार, 6 सितंबर 2014


'शिक्षक दिवस पर सभी गुरुजनो को शत-शत नमन'
    आपका आशीर्वाद और आपके प्रति मेरा सम्मान किसी दिन का    मुहताज नहीं।   


तमाम उम्र गुज़ार दी दिए जलाने में ,रौशनी  देते  रहे   जमाने को। 
जब शाम हुई ज़िन्दगी की , तो मिट्टी भी न मिली दर बनाने को।  


कलम जो थामी एक ख्याल में ,    हदों तक कलाम  लिखते गए  ,
जब शाम हुई ज़िन्दगी की , तो स्याही भी न मिली कलम डुबाने को।  


यूँ तो शहनाई बजती रही रात तलक , मौज़े चलती रही पैमानों की ,
जब शाम हुई ज़िन्दगी की  ,एक अल्फ़ाज़ भी सुनाई न दिया कानो को।  


फलसफा ज़िन्दगी का कुछ ऐसा ही है,आँधियाँ चलती  रही जमाने तक,
जब शाम हुई ज़िन्दगी की  ,हवा भी न मिली साँस लेने  को।


उम्र गुज़र गयी कई जिंदगियों के लिए  रोटियों  के जुगाड़ में। 
जब शाम हुई ज़िन्दगी की  , निवाला भी न मिला पेट की आग बुझाने को। 

 
उंगली पकड़ के रास्तों  में चलना सिखाते  रहे उम्र दराज़।  
जब शाम हुई ज़िन्दगी की  ,एक उंगली न मिली राह  दिखाने को। 

मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

                    नवरात्री की शुभकामनाएँ 
         नौ दिन के उपवास, नौ देविओं का आह्वाहन, हवन, दान, भजन - कीर्तन - श्रद्धा, कंचक पूजन - स्त्री के अनेक प्रतीकात्मक रूपों की  पूजा -अर्चना में कैसे गुजर जाते है, कितनी श्रद्धा, कितने  भक्ति भाव से बिताते है हम ये  नौ दिन कि भूल जाते है - साल के तीन सौ पैसठ दिन - कितने बलात्कार ,कितना मानसिक उत्पीड़न ,कितना अत्याचार ! काश हर तीन सौ पैसठ दिन हम नवरात्री मनाते -

Navratri
                            
                            (1)
लाल पीले पुष्प लेकर ,
तुम्हारे  द्वार आना,
मुझको हरदम भाता है.
पर तुम्हारे कजरारे नैना,  

देख मेरा दिल  रोता है। 
कितने आंसू भरकर इनमें, 
तू दर्द छुपाये बैठी है.
पर माँ तेरी आँखे मुझसे 
बार-बार ये कहती है- 
इस बेटी के घर का 
चूल्हा आज नहीं जला ,
उस बेटी के भर्ता ने 
उसको कल रात बहुत ही पीटा है. 
इसकी चुन्नी गली के, 
उस मनचले ने खिची है. 
इस लड़की की  देह न जाने
किस- किस ने कुचली रौंदी है.
फिर भी ओढ़े लाल चुनरिया 
भक्तो के आगे तू  बैठी है 
हँसते ओंठ भरे नैनो से 
कुछ सन्देश तू देती  है.
             
              (2)

काश, हम रोज़ नवरात्री मनाते। 
जिनके घर चूल्हे नहीं जले है, 
रोज़ उन्हेें भोजन खिलाते। 
कुछ निर्वसनो को,
वस्त्र पहना पाते । 
कुछ बेघरों को छत दे पाते,
तस्वीरो और पत्थरों के बजाय 
ज़िन्दगी की पूजा कर  पाते।