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सोमवार, 18 मई 2020

बच्चों,

हमारे कान खुले हैं तुम्हें सुनने के लिए , हमारी बाहें खुली हैं तुम्हें गले लगाने के लिए,हमारा दिल बहुत बड़ा है तुम्हारी हर अच्छाई और बुराई ,हार जीत को स्वीकार करने के लिए।

बिन बताए यूं न चले जाओ,इतने अकेले न रहो।हम हैं न।कहकर तो देखो। तुम्हारे यूं चले जाने से हम भी तिल तिल टूट रहे हैं।

#फिर_एक_बार!
मुझ जैसी कई और लड़कियां (!)होंगी जो पिता से ज्यादा जुड़ी होंगीं। मैं जितनी बातें अपने पिताजी से शेयर करती थी उतनी मां से नहीं कर पाती थी।पिताजी का हर निर्णय मुझे मान्य होता ।

मां का महत्व उस दिन अधिक समझ आया जब मेरी बेटी ने अपना पहला टीनएजर टैंट्रम दिखाया।गुस्से में भरी मैं ......तभी मां का फोन आया ,अभी बेटी के व्यवहार का गुस्सा उगल ही रही थी कि मां ने हंसते हुए धीरे से मेरे तेरहवें साल का जिक्र छेड़ दिया।अब मैं चुप ......फिर याद करती हूं वो ढेर सारी बातें जो मां बिन कहे समझातीं रहीं थीं।हम अनजाने में उन्हें कौपी करते करते बड़े हो गए।

आज जब बच्चे कहते हैं मां तुम नानी जैसी होती जा रही हो तो बहुत अच्छा लगता है।

मां पिताजी की एक बहुत प्यारी तस्वीर और जोकर बने हम ।

#happy_mothers_day
मैं शिव को नहीं जानती ।राहुल और रोहित को जानती हूं।पहले मैं वहीं उनके घर के पास पढ़ाने जाती थी।अब सब बच्चों को अपने घर में बुलाने लगी हूं। हां एक बार जब हमने कुछ बच्चों के घरों में कम्प्यूटर लगवाए थे तब मैं उनके घर के भीतर गई । बच्चों ने बताया कि कम्प्यूटर का टेबल पापा ने बनाया ।पापा कारपेंटर हैं।

कंप्यूटर टेबल के बगल में जमीन में गैस का चूल्हा ,पीछे लकड़ी की दीवार बना कर एक कमरा निकाला गया है ।जिसपर एक फोल्डिंग चारपाई के ऊपर कुछ गद्दे और बिस्तर चादर से ढका हुआ। मुंबई के स्लम्स के अधिकतर घर ऐसे ही होते हैं।सर से लगती छत की ऊंचाई की छः बाई आठ की खोली। बहुत मुश्किल जीवन है इनका ।

राहुल और रोहित दोनों बड़े ही प्यारे बच्चे हैं। राहुल का मन पढ़ने में थोड़ा कम लगता है पर उसकी मुस्कान मन मोह लेती है। रोहित अपेक्षाकृत गंभीर और पढ़ाई में ठीक ठाक है। राहुल और रोहित के पिता हैं शिव ।बेहद सीधे और सच्चे इंसान।

लौकडाउन के दौरान मैं व्हाट्सएप पर बच्चों के लिए पढ़ने के लिए कहानियां प्रश्न आदि भेजती रहती हूं और बच्चे अपनी ड्रौईंग या अन्य सामग्री भेजते रहते हैं।कल राहुल ने एक कविता भेजी ।नीचे लिखा था पापा ने लिखी है।यानी शिव ने लिखी है।न जाने शिव कितने पढ़े लिखे हैं।पर कविता साझा कर रही हूं ।कवित्व की बात न करें तो शिव का यह लेखन उसके जीवन के सत्य से जुड़ी विभत्सता का अंश हो सकता है।
एक ओर मजदूरों का दर्द,दूसरी ओर मिडिल क्लास जिसकी नौकरी जा चुकी है या कट कटा कर मिली सैलरी लोन तले दब गई है ।

कोई अर्थशास्त्री आसान सी भाषा में हम आम लोगों को बताए कि आने वाले दिनों की व्यवस्था कैसे हो?

करोड़ के शून्य इतने ज्यादा हैं कि गिनती बीच में ही गड़बड़ा जाती है।आजतक इतना गिनने की नौबत भी तो न आई।

#कोरोना
नया नहीं था ,कई बार पहले भी सुन चुकी थी ।दो दिन आंसू बहाती और फिर वापस उसी जोश के साथ काम में लग जाती ।पंखे साफ करती , बाथरूम चमकाती ,नई डिश तैयार करती ,नाचती ,फिल्मी गीत गाती ।सबको लगता अब सब कुछ नार्मल हो गया है।पर नार्मल कुछ नहीं हुआ ।

'निकल जा अभी ',मेंटल प्राबलम है क्या'! ये शब्द उसकी रूह में लहू की तरह रिस जाते और रूह की किसी एक स्थायी कोशिका में जमा हो जाते उसी कोशिका के बगल में जहां मां के डायलॉग भी  दिमाग के कंम्प्यूटर से अभी तक डीलीट नहीं हुए थे।विवाह के बाद पति का घर ही लड़की का घर होता है। फिर कहां जाएं वो।

#औरत_हूं_न
#देखा_सुना
#कुछ_बदला_नहीं