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शुक्रवार, 20 मार्च 2020


का करें संचय करना हम अपने पूर्वजों से सीखें हैं।जमा करो ,जमा करो।फिर हमें दोष काहे देते हो!

बेटी की शादी के लिए सोना जमा करो,बुढ़ापे के लिए पैसा जमा करो,साल भर के लिए अनाज जमा करो,प्याज महंगा हो गया ,जमा करो,आटा,चावल,तेल,आलू टमाटर,गोभी ,भिंडी जमा करो।

जब हमने विरोध किया तो सहेली ने आंखें तरेरीं ,'अच्छा खाली हाथ भेजोगी बेटी को! एक सेट तो हो कम से कम  ,' बात तो सच्ची है ,हम डर गए।भाई ने आंखें तरेरीं ,"कुछ न रखोगे बुढ़ापे के लिए,कौन देगा जब कमाई नहीं रहेगी तब!''बात तो सच्ची है हम डर गए। डाक्टर,बीमा पौलिसी ,मार्केट सब ने डराया ,सच्ची बातें थीं ,डरते रहे।डर डर के जीने की जगह मरते रहे।अभी अभी पड़ोसी ने अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करते हुए आवाज दी , 'भाभीजी कुछ नहीं मिलेगा अगले हफ्ते से',बात तो सच्ची है ,हम डर गए।

थैला लेकर निकल रहें हैं,देखो क्या क्या मिलता है।

लौटकर।खाली थैला लाए हैं, बाजार में बासी सब्जी है,स्टोर के रैक लगभग खाली हैं।

घर वालों ने डांट पिलाई है।क्या खाएंगे,अब भुगतो ।

हम डरे हुए गुमटी में एक किताब लेकर बैठ गए ,सोच ही रहें हैं ,पहले जो है वो तो निबटाएं।आगे की फिर देखेंगे।हम तो  नीरज जी की इन पंक्तियों के मुरीद हैं।

जितना कम सामान रहेगा
उतना सफ़र आसान रहेगा

जितनी भारी गठरी होगी
उतना तू हैरान रहेगा

उससे मिलना नामुमक़िन है
जब तक ख़ुद का ध्यान रहेगा

हाथ मिलें और दिल न मिलें
ऐसे में नुक़सान रहेगा

जब तक मन्दिर और मस्जिद हैं
मुश्क़िल में इन्सान रहेगा

‘नीरज’ तो कल यहाँ न होगा
उसका गीत-विधान रहेगा

सोचा कि बात तो गलत नहीं है और हम जैसों पर फिट भी बैठता है तो स्वस्थ रहिए ,मस्त रहिए।खाली बैठे  हैं कुछ तो ज्ञान देना होगा न! अगर दुबारा हमारी ऐसी पोस्ट नहीं पढ़ना चाहते तो हमारे साथ एक स्वर में बोलिए

 #go_corona_go

गुरुवार, 12 मार्च 2020

गौहत एक ऐसी पहाड़ी दाल जिसका औषधीय महत्त्व भी है।कहते हैं दाल के पानी का नियमित उपयोग पथरी के लिए  अचूक औषधि है। महाराष्ट्र में इस दाल को कुल्थी की दाल कहा जाता है।

फौरेस्ट साइड फार्म से आई औरगेनिक दालों का स्वाद बेहतरीन है।कल जब कुछ लोगों की फरमाइश में मैंने काली उड़द के साथ गौहत की दाल बनाई तो जिसने खाई उंगली चाटता रहा गया।(अपने मुंह मियां मिट्ठू)

पास्टा, नूडल्स खाने वाली प्रजाति ने भी जब दाल की वाहवाही की तो लगा रेसिपी साझा करुं।

एक कटोरी गौहत की दाल
तीन चौथाई साबुत उड़द
एक टमाटर
लहसुन १२ कलियां,अदरक एक इंच,तीन चार हरी मिर्च,एक प्याज, हल्दी, धनिया पाउडर,गर्म मसाला ,नमक और घी।

गौहत और उड़द को धोकर कुकर में डालें।एक कटा टमाटर,नमक स्वादानुसार,हल्दी, गर्म मसाला, धनिया पाउडर डालकर चार या पांच सीटी तक पाएं।गैस से उतार कर ठंडा होने रखें।

आठ कली लहसुन,एक प्याज,तीन चार हरी मिर्च,अदरक का पेस्ट बनाकर दाल में डाल दें। फिर लगभग चार सीटी दें।देख लें दाल पक गई है कि नहीं।यदि नहीं पटी तो दो तीन सीटी और दे दें।

अब एक कड़ाही में घी डालकर गरम करें ।हींग डालें,जीरा डालें।बची हुई लहसुन की कलियों को बारीक काटकर भूरा होने तक पकाएं । कुकर में बनी दाल को कड़ाही में डाल दें।एक दो उबाल आने तक पकने दें।हरा धनिया डालकर सजा दें।और बिना रुके गर्म गर्म चावल के साथ खाएं- खिलाएं।

पुनश्च: मैं खाना तोल मोल के बगैर अंदाज़ से बनाती हूं।आप अपने रिस्क पर बनाएं।

दालें : @forestside farm से मंगाई गई। शुद्ध औरगैनिक।

मंगलवार, 10 मार्च 2020

ईजा से सीखे थे गुजिया में कंगूरे निकालने।कनस्तर भरकर गुजिया बनाने का रिवाज हुआ पहाड़ में।

बिना आलू गुटुक ,पुदीने की चटनी,गुजिया ,अदरक की चाय के  भी कोई होली हुई। कड़ाही न चढ़े तो होली कैसी? भांग न छंने तो होली कैसी? 

गीत ,संगीत ,रंगों से सराबोर रिश्तों में जाति,धर्म,ऊंच- नीच की कोई जगह नहीं थी। उम्र का बंधन नहीं। कोलेस्ट्रॉल और कोरोना का डर नहीं था। 

समय के साथ बदलाव जरूरी है।थके मन और तन होटलों की ड्योड़ियां खोजते हैं। रंगों के बीच रिश्ते और अपनों को खोजते हैं अब। We don't celebrate Holi, no colour please my skin is sensitive.....

न खेलो ,हम तो रंग खेलेंगे,खाएंगे,खिलाएंगे,कड़ाही चढ़ाएंगे,गाएंगे।होली मनाएंगे।कोरोना कोलेस्ट्रॉल को हराएंगे।



शनिवार, 7 मार्च 2020

पिता कभी साधारण नहीं होते खासकर लड़कियों के पिता, उनके पहले हीरो होते हैं।

पिता सपने देखने सिखाते हैं, सपने जुटाते हैं, उन्हें पूरा करते हैं। मेरे लिए मेरे पिताजी (मैं बाबू कहती हूँ उन्हें)आज भी विशिष्ट हैं उन्होंने हमे हमेशा विचारों की स्वतंत्रता दी, हमें बेटी की तरह नहीं एक व्यक्ति की तरह बड़ा किया, अपने निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी।

वैज्ञानिक पिता की बड़ी इच्छा थी कि मैं भी वैज्ञानिक बनूँ पर मैंने उनके सपनों को चकनाचूर कर हिंदी विषय लिया। कुछ समय तक नाराज रहे पर फिर एक ही बात कही जो भी पढ़ना है पूरा पढ़ो और पूरा समझो।

अपने स्वास्थ्य का खूब खयाल रखने वाले टैनिस प्लेयर पिताजी कभी बुखार में भी दो सेट खेलकर अपने मित्र डाक्टर हो हैरान कर देते थे।

87 वर्ष के हो गए हैं पिताजी, अपने को संभालने के प्रयास में लगे रहते हैं, उनकी वजह से किसी को तकलीफ न हो इसका हमेशा ध्यान रखते हैं। मेरे लिए हर दिन फादर्स डे है फिर भी नई पीढ़ी के बनाए इस दिन पर पिता को समर्पित ये कविता।

 बाबू  अब देख नहीं पाते
अब वे किसी को पहचान नहीं पाते
किसी की बात सुन नहीं पाते
चलते चलते अचानक थक कर बैठ जाते हैं।
कभी उनके लेख छपते थे जानी मानी पत्रिकाओं में।
पर अब उनके दस्तखत बैंक में भी नहीं चलते।

पहले उनकी तनख्वाह से घर चलता था
अब भी उनकी पेंशन से ही घर चलता है।
पहले भी कम ही खर्च थे उनके अब और कम हो गए
पैसों का हिसाब किताब अब बिलकुल नहीं रख पाते,
पर अब भी वो अपनी पासबुक अपनी जेब में रखते हैं।

बचपन में  मुझे चलना सिखाया था
पढ़ना लिखना  सिखाया
मुझमें और भाइयों में
कभी भेदभाव नहीं किया।
मेरी किसी इच्छा अनिच्छा पर रोक नहीं लगाई।
सर उठाकर जीना सिखाया।
जब जब मैंने हौसला गंवाया था
बाबूजी ने हाथ बढ़ाकर उठाया।
पर अब हर फैंसले के लिए वे मेरी ओर देखते हैं।

 
दो एक साल से मैं उनसे मिल नहीं पाई ,
उन्होंने भी मिलने की इच्छा नहीं जताई।
वे खुश हैं कि मैं अपनी गृहस्थी में रमी हूं,
मुझे भी कहां फुरसत है  घर गृहस्थी से,
बीच बीच में फोन में जोर देकर बताते हैं
अपने ठीक होने की खबर जताते हैं।
उनकी लड़खड़ाती जबान हाल बता देती है उनका।
पर हर बार भिटौली  का लिफाफा समय पर भेज ही देते हैं

सोचा है इस बरस उनसे मिलकर आउंगी
बहुत सी बातें हैं उन्हें बताने को
कुछ खरीदारी करूंगी उनके लिए
कुछ समय उनके साथ बैठकर जानूंगी
वटवृक्ष से बाबूजी अब क्या सोचते हैं।

#my_father_my_hero
अम्मा चलीं गईं। जिंदगी में एक खालीपन सा तैरने लगा। दुख हां, दुख तो होता हैं अपनों के जाने का, पर दुख ये भी था कि इतनी जीवट वाली अम्मा अंतिम समय में इतनी तकलीफ में गईं। बुढ़ापा व्यक्ति को लाचार कर देता है ।

अम्मा का देहावसान 88 वर्ष में हुआ। मेरी और अम्मा की दोस्ती मात्र 24 वर्ष की है। पर इन चौबीस वर्षों में क्या नहीं मिला। माँ का सा प्यार, सास की झिड़कियां, गुरू का ज्ञान, मित्र का सहयोग, सहोदर सा रूठने - मनाने का क्रम।

अम्मा के पिताजी को मदनमोहन मालवीयजी ने संस्कृत पढ़ाने के लिए बी एच यू में आमंत्रित किया। अपने जीवन के खूबसूरत पल अम्मा ने बी एच यू में ही बिताए। आजादी के समय की न जाने कितनी कहानियाँ अम्मा की जबानी सुनीं थीं। विदुषी अम्मा इतिहास समेटे थीं अपने भीतर।

गीतों का संग्रह थीं अम्मा। लरजती आवाज में होली के गीत, नामकरण के गीत, लगन के गीत, ओह क्या नहीं संजोया था अम्मा ने अपने भीतर।

हमारी बैठकें सजी थीं अम्मा के क्रोशिए और कढ़ाई के मेजपोश से, हमारे बच्चों ने अम्मा के हाथ के बुने रंगबिरंगे स्वेटर टोपे पहने थे। हमारी रसोई महकती थी अम्मा के हाथों के बने पकवानो से।

अम्मा अब नहीं हैं पर उनकी कभी न भूली जाने वाली यादें हर पल साथ हैं।

#श्रद्धांजलि
रामलीला मुक्तेश्वर की
भाग १

सुबह से रामलीला की पोस्ट देखकर बार बार बचपन में पहुँच जा रही हूँ।

मुक्तेश्वर की रामलीला अपने समय में बहुत प्रसिद्ध थी। आसपास के गाँव तो रामलीला देखने आते ही थे, सुना है अल्मोड़ा, नैनीताल से भी लोग यहाँ की रामलीला देखने आते थे।

सीढ़ीनुमा ढलान के बीच छोटे से ग्राउंड में स्टेज था। बाईं तरफ आई वी आर आई के वैज्ञानिकों और उनके परिवारों के लिए कुर्सियां लगीं होती। स्टेज के दाईं ओर स्टाफ के लिए। दाईं ओर ही एक तख्त बिछा रहता जिसपर हारमोनियम और तबला रहता। स्टेज को बड़ा बनाने के लिए उसके आगे के भाग में लकड़ी की तख्तियां होती जहाँ दर्शकों का जाना वर्जित होता। सामने की तरफ स्टेज के बिलकुल पास जमीन में बच्चों के बैठने की व्यवस्था होती और फिर सीढ़ी नुमा खेतों में दूर तक लोगों का हुजूम। स्टेज से कुछ दूर समोसा, जलेबी, चाय आदि के स्टौल लगे रहते।

शाम सात बजे से रामलीला शुरू होती। पहाड़ों में काफी ठंड पड़ने लगती है इस समय। लोग शाल, कंबल, ओवरकोट, मफलर आदि गर्म कपड़ों से लदे फदे  रामलीला देखने पहुंचते और रात ग्यारह बारह बजे तक बैठे रहते।

हारमोनियम पर'रखियो लाज हमारी नाथ, दीनानाथ' के साथ शुरुआत होती। नौ दिन नौ एपिसोड 😁। सीता स्वयंवर, लक्ष्मण शक्ति, राम बनवास, कैकयी मंथरा संवाद, दशरथ मृत्यु के मंचन के दिन गजब की भीड़ रहती। स्त्रियों की आंखों से गंगा जमुना बहती। सुना है एकबार लक्ष्मण शक्ति के दौरान वास्तव में लक्ष्मण की मृत्यु हो गई।

अभी तो और भी कई किस्से हैं। सबसे जरूरी है स्वेटर बुनाई। परिवार के कई स्वेटर भी इस दौरान बुने जाते। एक दूसरे के डिजाइन कनखियों से नकल करतीं ईजाओं के हाथ तबले की थाप और हारमोनियम के संगीत की लय में चलते थे

भरत मिलाप चौपल्ली यानी चार रास्ते पर होता।

मनोरंजन का यही एक साधन था इसलिए इन दिनों का खूब इंतज़ार रहता।

अद्भुत बचपन की अद्भुत यादेँ मानस में अमिट छाप छोड़ गई।

#रामलीला
मुक्तेश्वर की ठंड

हमारा बचपन मंदिर के ठीक नीचे वाले बंगले में गुजरा। उससे पहले मुक्तेश्वर क्लब के ऊपर वाला घर और उससे भी पहले हवाघर वाला घर। ब्रिटिश काल में बने मुक्तेश्वर के खूबसूरत बंगलों की खिड़कियों से सामने सफेद बर्फीली चोटियों का आनंद.... आहा।

अक्टूबर की गुलाबी ठंड के बाद नवंबर आते आते पहाड़ों में कड़कड़ाती ठंड शुरू हो जाती है।

पहाड़ों की रातें जितनी ठंडी होती हैं, दिन में उतनी ठंड नहीं पड़ती। अक्सर बिन बादलों का साफ नीला आसमान , हल्की खिली धूप और पहाड़ियों का शगल -नीबू सानना।

पहाड़ों में अधिकतर लोग सुबह सवेरे खाना खा लेते हैं। नाश्ते का प्रचलन (हमारे समय में) थोड़ा कम था।  10- 11 बजे तक घर का सारा काम हो जाता। बिस्तर को धूप में सुखाने डाल दिया जाता। दिन भर बिस्तर टिन की छतों में सूखते। (पहाड़ों में छतें टीन की चादर से बनाई जाती,टिन दिन में गर्म हो जाता और रजाई गद्दों में भी गरमाहट आती) लगभग तीन चार बजे के करीब बिस्तर वापिस अंदर रख दिया जाता। कड़क ठंड से बचने का यह पहाड़ी जुगाड़ है।

लगभग बारह एक बजे कोई न कोई मिलने तुलना वाला आ ही जाता। तब धूप में बैठकर नीबू साना जाता। पहाड़ में बड़े आकार के नीबू होते हैं। कागजी नीबू से लगभग तीन गुना बड़े। नीबू को छीलकर एक भगौने  में उसका पल्प निकालकर उसमें दही, गुड़, भांगे या धनिया का नमक डाला जाता। तीखी हरी मिर्च की तिलमिलाहट ,खाने के मजे को दुगुना कर देती।खाने वालों की संख्या ज्यादा और सने नीबू की मात्रा कम होने के कारण सानने वाले बर्तन में नीबू खाने की होड़ लगी रहती।मात्रा बढ़ाने के लिए खेत से निकली ताजी मूली को भी उसमें मिला दिया जाता।हाथ से खाया जाता और आधे घंटे तक धीरे धीरे चटखारे लिए जाते। गुनगुनी धूप में नीबू सानकर खाने का आनंद ही कुछ और होता ।

कोई विरला ही पहाड़ी होगा जो इस सने नीबू के लाजवाब स्वाद से बच पाया होगा।

चित्र साभार गूगल
रीना पंत 

आखिरकार रमणिका गुप्ता जी की 'आपहुदरी एक जिद्दी लड़की की आत्मकथापढ़ ली। यह किताब मैने बहुत पहले मंगवा ली थी। स्वयं रमणिका जी ने ही बताया था कि मैं सामयिक प्रकाशन से मंगवा लूं। किताब आ गई और वक्त निकाल कर पढ़ी जाने वाली किताबों के बीच रख भी दी पर बीच में कई दूसरी किताबें पढ़ लीं। इस किताब की मोटाई देख हर बार फिर पढ़ूंगी सोचकर किताब ज्यों की त्यों रखी रही। इस बीच रमणिका जी के जाने की खबर मिली। नजर किताब पर पड़ी फिर रह गई एक दिन यकायक किताब उठाई पढ़ना शुरू किया और जब तक पूरी नहीं पढ़ी तब तक छूटी नहीं। बस डूबती चली गई किताब में। दो भागों में लिखी किताब के पहले भाग में उनके पारिवारिक जीवनबचपन यौवन के संघर्ष हैं और दूसरे भाग में उनके राजनैतिक जीवन की कहानी है। हादसे के बाद उनकी आत्मकथा की दूसरी कड़ी है आपहुदरी।




एक अद्भुत आत्मकथ्य है आपहुदरी। बोल्ड बहुत बोल्ड!  एक औरत के जीवन का संघर्ष हमेशा बोल्ड ही होता है बशर्ते लेखिका के अंदर उसे कहने का साहस हो। इसका बोध तब ही हो जाता है जब लेखिका कहती है। 'मैं रमना हूँ। 

अपने सामंती परिवार के भीतर की दुनिया में करीबी रिश्तों से ही ठगी स्त्री दुनिया भर में प्रेम ढूंढती रहीदोस्त ढूंढतीअकेली अपने अस्तित्व की पहचान के लिए संघर्ष करती जब कहती है तो समझ में आता है कि उसका साहस, 'एक दृढ़ संकल्प मन में कहीं मचल रहा थामैंमैं हूँ। मेरी पहचान हैमैं संपूर्ण स्त्री बनकर दिखाऊंगीजो संपूर्ण मनुष्य होती है। अर्धांगिनी नहींअपने में सम्पूर्ण! '

तब वह अपने भीतर की स्त्री को खत्म नही होने देती। बार-बार टूटीनिराशहतोत्साहित हुई औरत फिर-फिर उठी और कहने लगी, 'नदी तब तक नहीं रूकती जब तक उसका पानी का स्रोत खत्म नहीं हो जाता और मैने अपने भीतर की स्त्री के स्रोत को कभी खत्म नहीं होने दिया। '

लेखिका इस भरे पूरे कठोर संसार में अपने प्रति संवेदना खोजती रहीं । इस बेहद बेदर्द दुनिया में टिकी रही। इसलिए पृष्ठभूमि में ही स्पष्ट कर देती हैं 'मुझे बदलाव प्रिय है हालांकि मैं अब भी भीतर से कहीं रमना ही हूँ। '

आत्मकथा और वह भी बेबाकलिखना आसान नहीं होता होगा। सेना में डाक्टर पिता की बेटी,दो भाइयों की बहन रमणिका ,दादी ,बहन ,भाभियों,घर आने वाले मेहमानों से भरे पूरे घर में भी अकेली थी। मास्टर द्वारा किए शारीरिक शोषण को वो अपनी माँ को भी न बता पाई पर बहन को मास्टर ने अपना शिकार बनाया तो फट पड़ी और मास्टर को घर से जाना पड़ा। काश हमारे समाज में लड़कियों को आवाज मिलती तो रमणिका जी की आत्मकथा किसी और रूप में होती। लेखिका कई जगह जिक्र करती है वो अपने पिता के घर से जाना चाहती थीं इसलिए उन्होंने विवाह किया। कैसी विडंबना रही जिस घर में लड़की सबसे ज्यादा महफूज़ होती है वहाँ से भाग जाने का मन करे अपने अस्तित्व को पाने के लिए।  रमणिका जी भी भाग जाना चाहतीं थीं। 

तो क्या विवाह के बाद उन्हें वैसा जीवन मिल गया जैसा जीवन वे चाहतीं थीं। कुछ ही समय के बाद वे समझ गईं कि उनके रास्ते इतने सरल और सहज नहीं हैं। जो लोग संपर्क में आए उन्होंने उन्हें स्त्री से देह बनाकर उनका शोषण किया। लेखिका ने स्वीकार किया कि इन संबंधों से ही उनके खर्चे चलते। 

राजनैतिक जीवन में प्रवेश करते ही उन्होंने राजनीति और उसमें पनप रही पितृसत्तात्मक प्रवृत्ति को खूब महसूस किया। उससे जुड़ीलड़ीं और आगे बढ़ीं और कह पाईं "राजनीति में समझौता या व्याभिचार ज्यादा चलता है और बलात्कार कम।" अंत में रमणिका जी कहती हैं, "मैं औरत के लिए स्वछंद शब्द को स्वतंत्र से बेहतर मानती हूँ… . . मैं स्वछंद होना श्रेयस्कर समझती हूँ चूंकि इसमें छद्म नहीं हैदंभ भी नहीं है। "

बस एक मलाल रह गया कि उनके जाने के बाद किताब पढ़ी। इसलिए न जाने कितने अनकहे प्रश्न अनुत्तरित रह गए । मैं उनसे पूछती कि क्या माँ बेटी के बीच की अंडरस्टैंडिग इतनी भी न थी कि अपनी बेटी के शारीरिक शोषण को समझ ही न पाईं।या सामंती परिवारों की परंपरा में  स्त्री का शोषण बहुत सहजता से स्वीकार किया जाता है?पत्नी अपने पति केबेटी अपने पिता के,मां अपने बेटे के विवाह से इतर संबंधों को आसानी से स्वीकार करती है। 

भारतीय मानसिकता से कंडिशन्ड औरतों की परंपरा को तोड़ती लेखिका की स्वीकारोक्ति कि वो मास्टर के साथ सैक्स इंजौय करती थीएक बहुत बोल्ड स्टेटमैंट है। क्या ये लिखते हुए उन्होंने एक बार भी सोचा नहीं कि लोग क्या कहेंगेकैसे रिएक्ट करेंगे

एक लड़की की मनोदशा की कल्पना कीजिये जो भी पुरूष उसके संसर्ग में आता है उसके साथ उसके दैहिक संबंध हो जाते हैंक्या उसके लिए इतना आसान होता होगा किसी के साथ या कह लीजिए इतने लोगों के साथ दैहिक-संबंध बनाना!

क्या स्त्री सिर्फ और सिर्फ देह हैजिसका इस्तेमाल पुरुष मर्जी से करता है और स्त्री करने देती है
वे कई जगह लिखती हैं कि ये पुरूष जो पैसे देते थे उनसे लेखिका अपनी जरूरतें पूरी करती थीं। क्यों नहीं  वे आम औरतों की तरह प्रकाश (पति) की कमाई से गुजारा नहीं कर सकतीं थीं

पर आप तो आपहुदरी थींजिद्दी लड़कीआम कैसे होतीं! आप तो खास थीं रमणिका जी। आपके लिए सम्मान और बढ़ गया मेरे मन में मेरी आपहुदरीआप होतीं तो शायद कुछ प्रश्नों के उत्तर मिल जाते। 


रीना पंत मुम्बई में रहती हैं। पेशे से शिक्षिका हैं।साहित्य को बच्चों और आमजन तक पहुँचाने के लिए कथा समय कार्यक्रम और आइए रोइए sharing room द्वारा लोगों के दर्द तक पहुँचने के प्रयासों के अतिरिक्त किताबें पढने का शौक रखती हैं।उनसे pantreena22@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है।  

अनदा

कुल जमा तीन रोडवेज़ की बस चलती थी वहाँ।

 एक हल्द्वानी से सुबह आठ बजे चलकर ढाई बजे पहुंचती। दूसरी नैनीताल से दोपहर दो बजे चलकर शाम साढ़े पांच बजे पहुंचती। तीसरी दोपहर ढाई बजे हल्द्वानी से चलकर शाम साढ़े सात बजे मुक्तेश्वर पहुंचती।

मुक्तेश्वर तक पहुचने के लिए तीन स्टेशन पड़ते। भवाली, जिसे बड़ा स्टेशन माना जाता क्योंकि यह ऐसा जंक्शन था वहाँ से एक रोड अल्मोड़ा, रानीखेत तथा पिथोरागढ आदि पहाडों को जाती और दूसरी मुक्तेश्वर , भीमताल, घोड़ाखाल की ओर।

दूसरा स्टेशन आता रामगढ़। प्रकृति ने इतनी सुंदरता से नवाजा था इसे।सेब, खुबानी, आड़ू से लकदक पेड़ों का गाँव रामगढ़। यहाँ की प्राकृतिक सौंदर्य से मोहित हो महादेवी वर्मा ने यहाँ एक घर बनाया और साहितयिक रचनाएँ कीं। रविंद्र नाथ टैगोर यहाँ के सौंदर्य से इतने प्रभावित थे कि यहाँ शांतिनिकेतन बनाना चाहते थे।

अमूमन रामगढ़ में गाड़ी के रूकने का समय पंद्रह मिनट था। पकौड़ी चाय, आलू गुटके रायता का नाश्ता इन पंद्रह मिनटों में निबट जाता। कोई नया ड्राइवर होता तो दस मिनट में ही गाड़ी स्टार्ट हो जाती पर अगर अन दा यानी आनंदसिंह और लल दा यानी लालसिंह होते तो गाड़ी आधे घंटे से ज्यादा भी रूक सकती थी।  उसका विशेष कारण था। सड़क के उस पार थोड़ा नीचे की ओर देशी शराब की दुकान थी। शाम की बस के ड्राइवर अक्सर एकाध पाउच सुरासेवन के बाद ही वहाँ से प्रस्थान करते। मैं नहीं जानती कि क्या चमत्कार था पर खतरनाक घुमावदार रास्तों में गाड़ी सही समय में मुक्तेश्वर पहुंच जाती। लालसिंह जी और आनंदसिंह की बस से मैंने लगभग आठ या दस साल सफर किया होगा, जब वे पीकर टाइट हुए थे। हर बार अलग अलग कुछ मीठे,नमकीन और मिर्चिले अनुभव हुए।

वो हमारी मजबूरी भी थी और विश्वास भी कि हमें उन बसों में यात्रा करनी पड़ती थी। । मजबूरी ये कि आने जाने का कोई दूसरा साधन न था। हमारे तब के वैज्ञानिक पिताजी भी कार एफोर्ड नहीं कर पाते थे या जरूरत भी नहीं समझते थे। हाँ विश्वास गजब का।सब कुछ जानते हुए भी पिताजी कह जाते," यार अनदा, बच्चे आ रहे हैं।ख्याल रखना। " और अनदा भी तिरछी मुशकुराहट के साथ सलाम ठोककर चिंता न करने का आश्वासन देते । 😍कभी हमें ये चिंता नहीं हुई कि घर कब पहुंचेंगे।न जाने कितनी बार शाम की दोनों बसों में यात्रा कीं।

जाड़ों में तो पांच बजे घुप्प अंधेरा हो जाता था पर मजाल कि इतने मदिरापान के बाद भी ये ड्राइवर का स्टैरिंग लड़खड़ाए।

एक बार की बात है एक बंगाली अधेड़ परिवार नैनीताल से बस में चढ़ा। उस दिन अनदा गाड़ी चला रहे थे। भवाली आतेज्आते बस में उनको मिलाकर पंद्रह यात्री थे।

 रामगढ़ पहुँचते ही अन् दा अपने अड्डे में चले गए। आज थोड़ी ज्यादा ही चढ़ गयी थी शायद। गाड़ी चली। अनदा हमेशा की तरह सुर में बोलते जा रहे थे। बंगाली सज्जन को आभास हो गया था कि अनदा टिल्ल  हैं। डरके मारे वे चिल्लाने लगे और गाड़ी रोकने को कहा। अनदा को गुस्सा आया और वे गाड़ी को बीच रोड में खड़ा कर आगे न चलने के लिए अकड़ गए।

जाड़ों के दिन, अंधेरा, दूर दूर तक बत्ती नहीं दिखती। यात्री उन्हें मनाने लगे पर अनदा मानने को तैयार नहीं। डेढ़ घंटा इसी मानमनौव्वल में गुजर गया।अततः अनदा मान गए और भगवान का नाम लेकर सब बस में चढ़ गए। सबसे ज्यादा हैरान परेशान बंगाली दंपत्ति थे।

 बस तेजी से सर्पीली चढ़ाई में चढ़ा रहे अनदा हमारे हीरो थे। आज तो उनका उत्साह देखते ही बनता। जैसे ही बंगाली पत्नी के मुंह से डरी डरी सी चीख निकलती अनदा जोरदार ब्रेक लगाते। रोडवेज़ की खटारा बस चीत्कार कर धीमी हो जाती। अनदा नजर तिरछी कर लगभग इस अंदाज़ में देखते कि रोक दूं फिर से। बंगाली पति पत्नी को जोरों से घुड़की देते। अनदा विजयी भाव से तिरछी हंसी हंस कर गाड़ी की गति बढ़ा देते।

भटेलिया में तब गेट व्यवस्था थी।पहाडों से आने और जाने वाली गाड़ियों के लिए नियत समय पर गेट खुलता। शाम को पांच बजे और फिर सात बजे। पांच बजे का समय निकल गया तो सात बजे तक का इंतज़ार करना पड़ता।

भटेलिया अमूमनतया सुनसान रहता। गिनी चुनी दुकानों में से किसी एक में मरियल सा पीला बल्ब होता या काली पढ़ चुके कांच वाली ढिबरी मनहूसियत सी फैलाती। एकाध पियक्कड़ अपनी धुनकी में चिल्लाता तो आसपास अलसाया  कुत्ता सिर ऊपर उठाकर वाऊ की आवाज़ के साथ निंद्रामग्न हो जाता।

आज तो पांच बजे का गेट बंद हो गया। अब सात बजे ही बारी आएगी। बचे खुचे यात्री चाय पीने निकल गए। बस में हम तीन लोग थे। बंगाली दंपत्ति और मैं। पत्नी का बहुत देर से रूका रोना फूट पड़ा। डरे हुए पति ने उसे बाहों में ले दिलासा दिलाया। हिचकियाँ लेती स्त्री मेरी ओर देखकर बोलीं। तुम्हें इस बस में नहीं आना चाहिए था। उन्हें चिंता ये थी कि वो लोग नहीं होते तो मेरा क्या होता। और मैं इससे बेखबर उनकी घबराहट का मजा ले रही थी।

मैं कभी अनदा की गाड़ी में दुर्घटना या किसी और प्रकार की अवांछनीय घटना की कल्पना कर ही नहीं सकती थी। मैं क्या, मुक्तेश्वर में रहने वाला कोई भी पिये हुए अनदा और बिन पिए अनदा पर पूरा भरोसा करता था। गाड़ी को पहुंचने में बेशक दो तीन घंटे की देरी हो सकती है पर उअनदा की गाड़ी की दुर्घटना की खबर इतने सालों में नहीं मिली।

भटेलिया से आधा घंटे का रास्ता है मुक्तेश्वर का। पहुँच ही गए जैसा आभास होता था। ये घटना एक दिन की नहीं। बचपन से बड़े होने तक अनदा की बस में ऐसी न जाने कितनी रौमांचक यात्राएं की हैं हमने।

मुक्तेश्वर छोड़ने के बाद भी के ई दिनों तक हल्द्वानी के बस अड्डे में जाकर बसक्षके पास पहुंचकर मुक्तेश्वर की खुशबू लेती थी मैं।मिलने पर अनदा मूंछों के भीतर तिरछी मुसकुराहट के साथ हाथ उठाकर सब ठीक होने का इशारा कर अपनी ड्राइवर वाली गद्दी में शान से बैठ जाते मानो जिल्लेइलाही अकबर अपने तख्तोताज पर आसीन हों।

फोटो साभार गूगल।
हम कितनी सहजता से अपने बच्चों में जातीयता पिरो देते हैं।

 कल story telling session में गई थी। एक महिला महाभारत की कहानी सुना रही थीं। लगभग पांच से आठ वर्ष के बच्चे थे। महिला हर पात्र के नाम के साथ जाति अवश्य बता रहीं थीं जैसे परशुराम ब्राह्मण थे, युधिष्ठिर क्षत्रिय,कर्ण के पालक शूद्र थे। और बच्चे भी पूछने पर जाति सहित पात्र का नाम लेकर उत्तर दे रहे थे।किसी भी बच्चे को देखकर नहीं लग रहा था कि वे इस जातीय भेदों से अनभिज्ञ है। किसी भी बच्चे के भीतर इन जातियों को लेकर कोई जिज्ञासा नहीं थी। कि ब्राह्मण क्या और क्यों होता है? शूद्र कौन और क्यों हुआ?

मुझे याद है हमारे स्कूल की इतिहास की किताब में भी पहला या दूसरा चैप्टर होता था जहाँ वर्ण व्यवस्था की जानकारी दी जाती थी। हालांकि उस जानकारी का उद्देश्य वह नहीं है जो हमने मान लिया है।

दादी के समय में इस भेद को हमने महसूस किया था पर वो भी इतना नहीं था कि अपनी जड़ें दिमाग में जमा पाए।सामान्यतः घर में इन बातों को तवज्जो नहीं दी जाती थी।

बारहवीं तक जिस स्कूल में पढ़ी वहाँ के संस्थापक प्रताप भैय्या की सख्त हिदायत के चलते कभी सहपाठियों की जाति पता नहीं चली। हम सिर्फ़ नाम लिखते थे।

डाक्टर यशोधर मठपाल के साथ काम किया तो उन्होंने नाम के पीछे भारती लगा दिया।शादी के समय पता चला कि कुमाऊँ में भी तीन तरह के ब्राह्मण होते हैं।जिनका बंटवारा धोतियो से होता है। पर कुमाऊँ से बाहर आ जाने के बाद धोतियों वाली बात बेअसर हो गई।

अब जब बेटी विदेश गई तो  उसके सहकर्मियों ने उससे पूछा गया कि वो किस धर्म की अनुयायी हो , उसने बताया कि वो किसी धर्म को फौलो नहीं करती तो गर्व से सीना फूल गया।

क्यों न आने वाले वर्ष में धर्म और जातियता को गौण कर मानवता को प्रमुखता देते हुए एक नई शुरूआत करें! धर्म - जाति मुक्त समाज की नींव डालें। आइए पहले मानसिक विकास करें।
बहुत आहत हूँ, उबर नहीं पा रही। बार बार दिल वहीं चला जा रहा है  कि सिर्फ बारह साल में इतनी समझ कैसे आ गई मेरे बच्चे को । अपने को दोषी मानती हूँ। कहीं मैं भी उस सिस्टम में हूँ जो इतने छोटे बच्चे में डर, घृणा, नफरत, ईर्ष्या, नकारात्मकता पैदा कर रहा है।

आइए आज देश ,समाज, धर्म, जाति से पहले अपने घर की परवाह कर लें। घर बचेगा तो देश बचेगा। बच्चे बचेंगे तो समाज बचेगा, हम बचेंगे।

अपील है माता पिता, अभिभावकों से।

बच्चा हमारा खिलौना नहीं, एक जीता जागता इंसान है भावनाओ से भरा। उसका सम्मान करें। तभी वो हमारा सम्मान करेगा।

 छुट्टी के दिन घर, आसपास की बाजार,घर के आसपास की चीजों से बच्चे को रूबरू कराएं। कम से कम जाएं मौल।ब्रांड्स से कम से कम दोस्ती कराएं।

घर के छोटे बड़े काम बच्चों के साथ करें कराएं । बच्चों में जिम्मेदारी आएगी। किसी काम को छोटा न समझें। खाने में न नुक्ताचीनी करें न बच्चों को करने दें। सुपरफीशियल दुनिया की जगह पुख्ता जमीन दें।

बच्चों को बचपन से न सुनना सिखाएं। जब हमें लगे कि बच्चा जिद्द कर रहा है तो पहले देखें कि क्या जिद्द जायज है।

उम्र का लिहाज करें और करना भी सिखाएं। घर परिवार के बुजुर्गों, आसपास के उम्र में बड़े, गुरू जनों का आदर करेगा तो ही हमारा आदर करेगा।

हम मोबाइल और टीवी का इस्तमाल कम से कम करें। ये न भूलें हमारे बच्चे इस शताब्दी के बच्चे हैं, इन्हें टैक्नोलॉजी से दूर रखने की चेष्टा करना हमारी ही मूर्खता है। हां घर का प्रत्येक व्यक्ति सीमित समय में इनका प्रयोग करे, हमें ध्यान रखना होगा।

संतोषी बनें और बनाएं। जितना मिला है काफी है। दुनिया की हर चीज़ हमें नहीं मिल सकती। बेस्ट का कोई पैरामीटर नहीं होता।

अपने जमाने के उदाहरण न दें। और दें तो दिल में हाथ रखकर याद करें कहीं आप झूठ तो नहीं बोल रहे। परफैक्शनिस्ट न बनें न बच्चों को बनाएं। अपने विचारों को बच्चों पर न थोपें।

सब समझदार हैं। अपनी समझदारी बच्चों पर न थोपें।जिएं और उन्हें भी जीने दें।तन मन से स्वस्थ युवा ही देश के गणतंत्र और संविधान की रक्षा करेंगे।

गणतंत्र दिवस की शुभकामनायें।
प्रिय भव्या,

जानती हूँ उत्तर देने को अब तुम हमारे पास नहीं हो। अब हम तुम्हारे कृत्य में कयास लगाते रहेंगे।

इधर तुम्हारे मम्मी पापा लोगों को सफाई देते देते थक रहे हैं (वे रो नहीं रहे।उनकी आंखों के आंसू उस शौक से सूख गए जो उन्हें तुम दे गई)और उधर तुम्हारी टीचर्स, तुम्हारे अंकल आंटी, पड़ोसी तुम्हें याद कर आंखें पोंछ रहे हैं।

मैम बता रहीं हैं कि कल तुम स्कूल में बहुत खुश थी। तुमने उन्हें बताया कि तुम इंजिनियर बनना चाहती हो! दूसरी मैम बता रहीं थीं कि तुमने उनके साथ रेसिपी शेयर की। लाइब्रेरी में भी तुम चहक रही थी। फिर अचानक उस क्षण क्या हुआ!

मैंने सुना तुम्हारी माँ ने तुम्हें खेलने न जाकर पढ़ने के लिए कहा। वे बाजार गई और तुम इतनी सी बात से नाराज होकर दुनिया से चली गई बेटा।

मैं कल से अभी तक बस यही समझने की कोशिश कर रही हूँ कि हम टीचर्स, हम माता पिता, हम समाज, हम देश, हम काल कहाँ गलत हो गए कि तुम्हें अपनी बात कहे बिना यहाँ से जाना पड़ा।

 अफसोस हम धर्म, राजनीति, कम्पटीशन, ऊंच नीच, छोटा बड़ा, सिस्टम , अहंकार, छल और भी जाने किन किन बातों में उलझे रहे और तुम अकेली हमें कई और प्रश्नों में उलझाकर चलीं गई।

देखकर तो नहीं लगता था तुम इतनी उलझी हो। कहाँ डर गई जिंदगी से? क्यों डर गई? क्या हममें से कोई भी न था जो तुम्हे समझ पाता?

क्या माँ को अपने बच्चों से पढ़ाई करो कहने का अधिकार नहीं है? क्या टीचर्स को बच्चों को सही राह में चलने की सलाह देने का हक नहीं है?

हर बार तुम और तुम जैसे मेरे करीबी चले जाते हैं और मैं इन सवालों से जूझती रहती हूँ कि आखिर क्यों नहीं हम अपने सिस्टम को बदल रहें हैं? क्यों नहीं हम अपनी सोच को बदल रहे हैं? हम किस दिन के इंतजार में हैं?

तुम बहुत याद आओगी ! अभी तो मैं पार्थ, शौन, तनय के जाने के दुख से ही नहीं उबरी  थी बेटा। कहीं हो तो संकेत देना कि कौन सी वजह थी जिससे तुम इतनी डिस्टर्ब हो गई। जिससे हम तुम जैसे बच्चों की कुछ तो मदद कर सकें। हम एक ऐसी व्यवस्था बना सकें कि हमारे बच्चे जीवन से हार न मानें।

तुम्हारी
रीना मैम।
बनारस से वापसी

'सुखन रा नाजिशे-मीनू क्फुमाशी जे गुलबांगे-समाइश हाय काशी
बनारस राकसे-गुफ्रता चुनीनस्त हुनूज अज गंगे-चीनश बरजबीं अस्त’
(काशी की तारीफ का फल है कि मेरी शायरी को आसमान जैसा ऊंचा और हसीन लिबास मिला)

इसी बनारस को देखने की तमन्ना लिए निकले थे बनारस कि दो हर्फ लिखना - पढ़ना हम भी सीख जाएं।क्या चंद पलों में ये करामात हो सकती है?सो दिल की तमन्ना दिल में लिए चले आए।

बनारस मेरे लिए बिस्मिल्ला खां का शहर है, क्वीन्स कौलेज में पढ़ते प्रेमचंद का शहर ,अम्मा का बी एच यू,गंगा की आरती ,चाट,मगही पान है।

सारनाथ,बाबा विश्वनाथ दर्शन, संकटमोचन दर्शन,गंगा जी की भव्य  संध्या आरती,असि घाट और ढेर सारी खरीदारी।कैसे फुर्र हुए दिन पता ही नहीं चला।

बनारस के लोगों की आत्मीयता ने दिल लूट लिया।उषा दी,पुष्पा दी,वंदना के प्रेम से सराबोर वापसी तो हो गई पर दिल का एक कोना वहीं छूट गया।वंदना के हाथ के बने लजीज खाने को नहीं भूल सकते ।आते आते उषा दी ने  'खोइचा 'भी भरा ।इतने  अपनापे का कैसे शुक्रिया अदा करेंगे ।@pratima Sinha से मिलने फिर आया जाएगा। एयरपोर्ट में Om Prakash Singh जी  से मिलना सुखद आश्चर्य था।

फिर जल्द आना होगा बनारस।
तो फिर इस वर्ष की दसवीं , बारहवीं की परीक्षा शुरू हो गई या होने वालीं हैं।एन्जा़एटी या स्ट्रेस होना स्वाभाविक है।

बिलकुल सही है परीक्षा के दिनों में साधारण दिनों से ज्यादा पढ़ाई करनी चाहिए।पर पढ़ाई एक सतत प्रक्रिया है।रोज पढ़ो ,रोज गुनो।

परीक्षा हम इसलिए देते हैं कि जान सकें ,अभी और कितना जानना है। परीक्षा यह जानने के लिए नहीं देते कि दूसरे कितना जानते हैं या दूसरों से प्रतिस्पर्धा करें।

दो या चार साल की पढ़ाई से हम नहीं समझ पाते कि हम कितना जानते हैं।जीवन के उतार चढ़ाव हमें सिखाते हैं ,अनुभव हमें जीवन के कई पाठ सिखाते हैं।

बस आराम से परीक्षा दीजिए बिना स्ट्रेस के। परिणाम की चिंता न करें।जो आता ,जो सीखा है उसमें विश्वास करें, खुद पर विश्वास करें।

 बोर्ड परीक्षा की बहुत शुभकामनाएं।
आईटी कंपनी मासटैक के फाउंडर और सीईओ श्री अशांक देसाई और उनकी पत्नी प्रज्ञा देसाई द्वारा अपनी बेटी अवन्ती देसाई की स्मृति में चलाए जा रहे कार्यक्रम ' कहकशां' में जाने का मौका मिला।

'अब मैं बोलूंगी' विषय पर आधारित आज के कार्यक्रम में कई स्कूलों की छात्राएं अपने माता-पिता के साथ आईं थीं। आश्चर्य है कि मुंबई जैसे शहर में भी लड़कियों के प्रति लोगों की सोच में बहुत ज्यादा फर्क नहीं है। आज भी ऐसे कई लूपहोल्स हैं समाज में जो बेटियों की राह को बाधित कर रहे हैं।

कार्यक्रम के दौरान कई बेटियों से बातचीत हुई। बातचीत के दौरान ऐसे कई पल आए जब आंखें भीग गई और कई बार होंठों से वाह निकला।

आज जब रिश्तों में दूरियां बढ़ती जा रहीं हैं,समय की कमी सभी को कचोटती है मेरे ख्याल से इस तरह के कार्यक्रम की दरकार है जहां माता पिता और बच्चों की बराबरी की भागेदारी हो। 

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