तुम कविता बन जाओ..........
छंदो पद्यों की लहरी ,
छंदो पद्यों की लहरी ,
स्वर शब्दों की साधना ,
सरिता सी कल -कल करो ,
और तुम कविता बन जाओ।
गीत कोई भूला -बिसरा ,
राग कोई विस्मृत सा हो ,
सोई आँखों का सपना बन ,
मलय पवन सी बहो ,
और तुम कविता बन जाओ।
छोटी बूंदों की लड़ियाँ बन ,
घन घमंड को चूर करो ,
आसमान को उद्वेलित कर,
वर्षा की रिमझिम बन जाओ ,
और तुम कविता बन जाओ।
पर्वत के आँचल की हरियाली,
सागर में क्रीड़ा करने वाली ,
मत्स्यावली सी तैर- तैर ,
आलोड़ित ह्रदय को करो ,
और तुम कविता बन जाओ।
मेरे आँगन की बगिया को ,
भाँति भाँति के सुमनों की ,
सुगन्धोरस की गरिमा से ,
चहुँ ओर प्रसारित करो ,
और तुम कविता बन जाओ।
जीवन की अंतिम बेला हो जब ,
कोई विस्मृत ऐसी घटना ,
जो हास्य अधर की बन जाये ,
तुम ऐसी बात सुना जाओ ,
और तुम कविता बन जाओ।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (25-04-2015) को "आदमी को हवस ही खाने लगी" (चर्चा अंक-1956) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
dhanyawad sir.....
हटाएंबहुत खूब।
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