मेरे आंगन में कबूतरी के
दो नन्हे बच्चे रुई के फाहों से
एक दिन निकले बाहर
जब अपने खोलों से.
मेरी बेटी ने नाम करण किया उनका
टिन टिन और डेल्फी नाम रख दिया उनका
अब हमारी सुबह ,दिन और रात है
टिन टिन और डेल्फी के नाम,
उनके खाना औ पानी का ध्यान
कौवों से उन्हे बचाना .
सारी जिम्मेदारी निभाना
कितना मुश्किल है काम.
अब पति भी फ़ोन कर दिन में दो बार
जान लेते है उनका हाल चाल
पडोसी और उनके बच्चे भी
बजा कर घंटी बार बार
जानने को रहते है बेकरार
कि टिन टिन क्या कर रही है
डेल्फी सोया कि नहीं
उनकी नींद के चक्कर में
नींद उड़ गयी है मेरी
सोचती हूँ दिन में उंघती हुई
कब ये जायेंगे उड़कर अपने साथियों के साथ
और ख़त्म होगा मेरा काम
इसी सोच में ख्याल आया
मेरे अपने बच्चे जब उढ जायेंगे
अपने साथियों के साथ
तब भी तो ख़त्म हो जायेगा काम
अपने अकेलेपन के डर से
तब एक सहमी हुई हुए उदासी छाई
और ख्याल को धकिया कर
कबूतरी के बच्चों में मन लगाया
अगली सुबह जब उठी
तो देखा न कबूतरी है
न टिन टिन और डेल्फी
बस बचे है नीड़ के कुछ तिनके
कुछ पंख भर उनके निशान
भरी आंखों से देखा तो
पति ने सर सहलाकर समझाया
यही है जिंदगी की वास्तविकता और दस्तूर
बच्चों को होना है बड़ा और जाना है दूर
तभी तो बन पायेगा उनका कुछ वजूद
.सच्चाई को समझना और जानना
कितना मुश्किल है मानना
और इन्तजार करने लगी
फिर आयेगी कबूतरी और
रुई से बच्चे होंगे.................
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें