प्रिय भव्या,
जानती हूँ उत्तर देने को अब तुम हमारे पास नहीं हो। अब हम तुम्हारे कृत्य में कयास लगाते रहेंगे।
इधर तुम्हारे मम्मी पापा लोगों को सफाई देते देते थक रहे हैं (वे रो नहीं रहे।उनकी आंखों के आंसू उस शौक से सूख गए जो उन्हें तुम दे गई)और उधर तुम्हारी टीचर्स, तुम्हारे अंकल आंटी, पड़ोसी तुम्हें याद कर आंखें पोंछ रहे हैं।
मैम बता रहीं हैं कि कल तुम स्कूल में बहुत खुश थी। तुमने उन्हें बताया कि तुम इंजिनियर बनना चाहती हो! दूसरी मैम बता रहीं थीं कि तुमने उनके साथ रेसिपी शेयर की। लाइब्रेरी में भी तुम चहक रही थी। फिर अचानक उस क्षण क्या हुआ!
मैंने सुना तुम्हारी माँ ने तुम्हें खेलने न जाकर पढ़ने के लिए कहा। वे बाजार गई और तुम इतनी सी बात से नाराज होकर दुनिया से चली गई बेटा।
मैं कल से अभी तक बस यही समझने की कोशिश कर रही हूँ कि हम टीचर्स, हम माता पिता, हम समाज, हम देश, हम काल कहाँ गलत हो गए कि तुम्हें अपनी बात कहे बिना यहाँ से जाना पड़ा।
अफसोस हम धर्म, राजनीति, कम्पटीशन, ऊंच नीच, छोटा बड़ा, सिस्टम , अहंकार, छल और भी जाने किन किन बातों में उलझे रहे और तुम अकेली हमें कई और प्रश्नों में उलझाकर चलीं गई।
देखकर तो नहीं लगता था तुम इतनी उलझी हो। कहाँ डर गई जिंदगी से? क्यों डर गई? क्या हममें से कोई भी न था जो तुम्हे समझ पाता?
क्या माँ को अपने बच्चों से पढ़ाई करो कहने का अधिकार नहीं है? क्या टीचर्स को बच्चों को सही राह में चलने की सलाह देने का हक नहीं है?
हर बार तुम और तुम जैसे मेरे करीबी चले जाते हैं और मैं इन सवालों से जूझती रहती हूँ कि आखिर क्यों नहीं हम अपने सिस्टम को बदल रहें हैं? क्यों नहीं हम अपनी सोच को बदल रहे हैं? हम किस दिन के इंतजार में हैं?
तुम बहुत याद आओगी ! अभी तो मैं पार्थ, शौन, तनय के जाने के दुख से ही नहीं उबरी थी बेटा। कहीं हो तो संकेत देना कि कौन सी वजह थी जिससे तुम इतनी डिस्टर्ब हो गई। जिससे हम तुम जैसे बच्चों की कुछ तो मदद कर सकें। हम एक ऐसी व्यवस्था बना सकें कि हमारे बच्चे जीवन से हार न मानें।
तुम्हारी
रीना मैम।
जानती हूँ उत्तर देने को अब तुम हमारे पास नहीं हो। अब हम तुम्हारे कृत्य में कयास लगाते रहेंगे।
इधर तुम्हारे मम्मी पापा लोगों को सफाई देते देते थक रहे हैं (वे रो नहीं रहे।उनकी आंखों के आंसू उस शौक से सूख गए जो उन्हें तुम दे गई)और उधर तुम्हारी टीचर्स, तुम्हारे अंकल आंटी, पड़ोसी तुम्हें याद कर आंखें पोंछ रहे हैं।
मैम बता रहीं हैं कि कल तुम स्कूल में बहुत खुश थी। तुमने उन्हें बताया कि तुम इंजिनियर बनना चाहती हो! दूसरी मैम बता रहीं थीं कि तुमने उनके साथ रेसिपी शेयर की। लाइब्रेरी में भी तुम चहक रही थी। फिर अचानक उस क्षण क्या हुआ!
मैंने सुना तुम्हारी माँ ने तुम्हें खेलने न जाकर पढ़ने के लिए कहा। वे बाजार गई और तुम इतनी सी बात से नाराज होकर दुनिया से चली गई बेटा।
मैं कल से अभी तक बस यही समझने की कोशिश कर रही हूँ कि हम टीचर्स, हम माता पिता, हम समाज, हम देश, हम काल कहाँ गलत हो गए कि तुम्हें अपनी बात कहे बिना यहाँ से जाना पड़ा।
अफसोस हम धर्म, राजनीति, कम्पटीशन, ऊंच नीच, छोटा बड़ा, सिस्टम , अहंकार, छल और भी जाने किन किन बातों में उलझे रहे और तुम अकेली हमें कई और प्रश्नों में उलझाकर चलीं गई।
देखकर तो नहीं लगता था तुम इतनी उलझी हो। कहाँ डर गई जिंदगी से? क्यों डर गई? क्या हममें से कोई भी न था जो तुम्हे समझ पाता?
क्या माँ को अपने बच्चों से पढ़ाई करो कहने का अधिकार नहीं है? क्या टीचर्स को बच्चों को सही राह में चलने की सलाह देने का हक नहीं है?
हर बार तुम और तुम जैसे मेरे करीबी चले जाते हैं और मैं इन सवालों से जूझती रहती हूँ कि आखिर क्यों नहीं हम अपने सिस्टम को बदल रहें हैं? क्यों नहीं हम अपनी सोच को बदल रहे हैं? हम किस दिन के इंतजार में हैं?
तुम बहुत याद आओगी ! अभी तो मैं पार्थ, शौन, तनय के जाने के दुख से ही नहीं उबरी थी बेटा। कहीं हो तो संकेत देना कि कौन सी वजह थी जिससे तुम इतनी डिस्टर्ब हो गई। जिससे हम तुम जैसे बच्चों की कुछ तो मदद कर सकें। हम एक ऐसी व्यवस्था बना सकें कि हमारे बच्चे जीवन से हार न मानें।
तुम्हारी
रीना मैम।
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