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शनिवार, 7 मार्च 2020

अम्मा चलीं गईं। जिंदगी में एक खालीपन सा तैरने लगा। दुख हां, दुख तो होता हैं अपनों के जाने का, पर दुख ये भी था कि इतनी जीवट वाली अम्मा अंतिम समय में इतनी तकलीफ में गईं। बुढ़ापा व्यक्ति को लाचार कर देता है ।

अम्मा का देहावसान 88 वर्ष में हुआ। मेरी और अम्मा की दोस्ती मात्र 24 वर्ष की है। पर इन चौबीस वर्षों में क्या नहीं मिला। माँ का सा प्यार, सास की झिड़कियां, गुरू का ज्ञान, मित्र का सहयोग, सहोदर सा रूठने - मनाने का क्रम।

अम्मा के पिताजी को मदनमोहन मालवीयजी ने संस्कृत पढ़ाने के लिए बी एच यू में आमंत्रित किया। अपने जीवन के खूबसूरत पल अम्मा ने बी एच यू में ही बिताए। आजादी के समय की न जाने कितनी कहानियाँ अम्मा की जबानी सुनीं थीं। विदुषी अम्मा इतिहास समेटे थीं अपने भीतर।

गीतों का संग्रह थीं अम्मा। लरजती आवाज में होली के गीत, नामकरण के गीत, लगन के गीत, ओह क्या नहीं संजोया था अम्मा ने अपने भीतर।

हमारी बैठकें सजी थीं अम्मा के क्रोशिए और कढ़ाई के मेजपोश से, हमारे बच्चों ने अम्मा के हाथ के बुने रंगबिरंगे स्वेटर टोपे पहने थे। हमारी रसोई महकती थी अम्मा के हाथों के बने पकवानो से।

अम्मा अब नहीं हैं पर उनकी कभी न भूली जाने वाली यादें हर पल साथ हैं।

#श्रद्धांजलि

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