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बुधवार, 24 अगस्त 2011

do haath

A general view of of the blast site near the Opra house Mumbai
बारूदों से खेलते हुए ,
क्या तुमने सोचा है .
 कि जिन हाथों से 
तुम चलाते हो गोली 
वैसे ही कुछ होते होंगे
 दो हाथ  
जो अपने घर के लिए
 दो जून की रोटी जुटाते होंगे
 क्या कभी तुमने सोचा है
 दो हाथ
 आलिंगन में लेते होंगे
 अपने मासूम से बच्चों  के चेहरे 
देखते होंगे स्वप्न कुछ अनजाने 
.दो हाथ 
 किसी बूढे की लाठी
 किसी नवोढ़ा की जाति,
 किसी बहन की राखी
 के बन्धनों में बंधते होंगे
 क्या तुमने कभी सोचा है
 बारूद से सने तुम्हारे
 दो हाथ 
कितनों के  जीवन  के
 रक्त से सनेगे 
कितनी आँखों के सपने टूटेंगे
कितने अरमान छुटेंगे
दो हाथ 
नियामत हैं खुदा क़ी
क्यों करते हो बर्बाद
 इनको रहने दो 
बनाने के लिए 
रिश्तों को निभाने के लिए 
रहने दो   यूँ ही इन्हें 
जमाने के लिए ........ 

बुधवार, 10 अगस्त 2011

intazar


waiting for you miss u
आज फिर वो शामें याद आ  रही है.जब बेमतलब ,बेवजह सड़कों में घूमा  करते थे.चुपचाप----मानो ठण्ड से होंठ   भी जम गए हों.बोलने को जी नहीं चाहता था परन्तु फिर भी लगता था इस चुप्पी में हजारों अनकही बातें कह रहे हो ........, सुन रहे हो ......
          .अचानक एक शाम -सोडियम बल्ब की रौशनी में एक पत्य्हर के टीले में बैठ गयी.झील के किनारे ठंडी हवा और गिरती हुई ओस के कारण पत्थर भी ठंडे हो गए थे.कोहरे का यह हाल था कि एक हाथ आगे कोई दिखाई भी नहीं पड़ता .मन बहुत अशांत था .कुछ कहना चाहती थी.... कुछ क्या बहुत कुछ और सुनना भी चाहती थी बहुत कुछ पर न शब्द तुम्हारे  पास थे न मेरे पास .महसूस तो कर सकते थे पर मन नहीं था अहसास की अनुभूति से दूर होते जा रहे थे.
       अचानक ऐसा लगा कि कुछ कहना जरुरी हो गया है.अगर अभी नहीं कहा तो शायद कभी नहीं कह पाऊँगी .मैने धीरे से हाथ बदाए-तुम्हारे हाथों का सहारा लेने के लिए.तुमने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई.तुम मेरी भावनाओ से बिलकुल दूर अपने में गुम. हमेशा से ही ऐसा करते हो,ये कोई नई बात तो नहीं.में बहुत आहत हुई मुझे तुमसे ऐसी आशा  नहीं थी   हर बार यही होता है  जानते हुए भी में कई ऐसी आशाएं कर बैठती  हूँ शायद कुछ न मिलने पर भी में कुछ मिलने की आशा रखती हूँ और  रोज़ इसी तुम्हारे  पास आती हूँ.तुम विरक्त सन्यासी की तरह खुद को छुड़ाकर मेरी पहुँच  से दूर पहुँच  जाते हो .
        अचानक सैलानिओं का एक झुण्ड आया.शोर हुआ मैने अपना हाथ समेट लिया  उन्होने एक दो शब्द हमारी ओर उछाले और चल दिए.मेरी हिम्मत नहीं हुई कि फिर मेरे ठंडे हाथ तुम्हारे  हाथों का सहारा ले सके.में अपने हाथ कोट में डाले उन्हे  गर्माने की कोशिश  करने लगी  जो तुम्हारे  हाथों में आकर और भी ठंडे हो चुके थे.मैने फिर बोलने की कोशिश की.तुमने मुझे ऐसे देखा कि में  चुप हो गई.
        अब में समझ चुकी थी कि तुम एकांत से डरकर मेरे    पास आते हो मगर फिर भी एकांत में रहना चाहते हो अकेले- खुद में -अपने बाहर की दुनिया से अलग.सोडियम लाइट का पीलापन बढ़ चुका था.कोहरा घना हो गया .पहाड़ ढक गए थे. ओस ने बूंदों का रूप ले लिया था .हमे चलना चाहिए .ऐसा शायद हम दोनों ने  महसूस किया मगर कहा नहीं. हम एक साथ खडे हुए और बिना बोले चलने लगे .मोड़ आया मैने मुड़ना  चाहा हम दोनों रुक गए...........देखा......कुछ कहने की जरुरत महसूस नहीं हुई.तुमने मुझे देखा और मैने तुम्हे . तुम चल पडे अपनी राह और में अपनी राह. कुछ दूर जाकर में मुड़ी .शायद तुम भी देखोगे पर नहीं तुम्हे  इसकी जरुरत नहीं . में खड़ी रही. मेरी इच्छा हुई जोरो से चीखूँ -  रुको , मुझे तुमसे कुछ कहना है मगर बोल वही जम गए और आंखे बह चली. में खड़ी रही आंसू लिए तुम्हें  जाते देखती रही. तब तक जब तक तुम एक बिंदु बनकर ओझल नहीं हो गए . में लौट चली कल के लिए ...............