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रविवार, 1 सितंबर 2013

  क्यों नहीं पढना चाहते हम हिंदी जबकि 

  • हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है.
  • हिंदी वह भाषा है जो अनेक भाषा भाषियों को एक कड़ी में जोडती है।
  • हिंदी एक ऐसी भाषा है जो देश के बडे भाग में बोली जाती है।
  • हिंदी एक मीठी भाषा है।
  • हिंदी जैसी कोई और भाषा नहीं। 
  • हिंदी हमे अपने देश से जोडती है।
  • अपनी सभ्यता से जोडती है। 
  • संस्कृति से जोडती है।
  • हिंदी  एक समृद्ध भाषा है ,यह अपने आप में पूर्ण है। 
  • घर में हम क्यों और कितना दूसरी भाषाओँ का प्रयोग करते है.
  • हम दिनभर  में कितने ऐसे लोगो से बातचीत करते है जो बिलकुल भी हिंदी नहीं जानते। 

जब हिंदी इतनी अच्छी भाषा है तो  हम हिंदी पढ़ते  क्यों नहीं?
  • हमे हिंदी पढने में शर्म क्यों आती है।
  •  हमे यह कहना क्यों अच्छा लगता है कि  मेरी हिंदी बहुत अच्छी नहीं है ?
  • हिंदी विषय बड़ा बोर करता है। 
हमे शर्म क्यों नहीं आती 
  • यह  कहते हुए कि मुझे हिंदी अच्छी तरह आती  है पर अंग्रेजी में मैं थोड़ी कमज़ोर हूँ।
  • हिंदी मेरी राष्ट्रभाषा है इसलिए यदि किसी  भाषा में पहला अधिकार है तो वो हिंदी है।
  • हिंदी ऐसी भाषा है जिसे मैं  अन्य  सब भाषाओ से ज्यादा अच्छी तरह बोलती या समझती हूँ।
  • मैने करीब सभी हिंदी के अच्छे लेखकों को पढ़ा है।
  • मेरा स्वाभिमान क्यों नहीं मुझे धिक्कारता कि मैं अपने बलबूते पर अपने पैरों में खडे होऊं न कि दूसरों की दया पर जिंदा रहूँ। 
    हिंदी के प्रति यदि ऐसा रुख रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हिंदी भी संस्कृत जैसी दुरूह भाषा  बन जाएगी।आखिर हिंदी के प्रति हमारा ऐसा व्यव्हार क्यों है ?इस विषय को लेकर हर वर्ष कई चर्चाएँ होती है। हम एक नयी चर्चा नहीं करेंगे। 
    बस इतना करेंगे
    • हिंदी पढेंगे क्यूंकि यह मेरी अपनी राष्ट्रभाषा है।
    •  हिंदी बहुर सुंदर और सीधी- सरल भाषा है। 
    • जितना प्यार मुझे अपने से है उतना ही अपनी भाषा है. 
    • मेरी भाषा  मेरी पहचान है। 
    • मैं दूसरी सभी भाषाओं को सिखना  चाहती और उनका सम्मान करती  हूँ पर पहले में हिंदी भाषा को विस्तार से सीखूंगी और उसका सम्मान करुँगी। 
    • मेरी भाषा किसी दिन या तिथि की मोहताज़ नहीं है। हर दिन इसका है और हर दिन यह मेरा साथ देती है। 
             मेरी आत्मा रोती  है जब मैं सोचती और सुनती हूँ कि राष्ट्रीय भाषा होते हुए भी हमे याद दिलाना पड़ता है कि एक दिन तो कम  से कम हिंदी भाषा बोले।  

    शुक्रवार, 2 अगस्त 2013



            प्रेमचंद जयंती के अवसर पर 'कलम के सिपाही' को शत शत नमन। प्रेमचंद की हर कहानी अद्भुत है। मैं बच्चों को प्रेमचंद की कहानी समय समय पर सुनाना बहुत पसंद करती  हूँ। पता नहीं आजकल के बच्चे उनकी कहानियों की सार्थकता समझ पाते  है या नहीं । पर एक छोटी सी घटना का ज़िक्र करना मुझे अच्छा लगेगा।


           सूरत से वापस लौट रहे थे कार्यक्रम था कि चिरोटी के महालक्ष्मी मंदिर में दर्शन के लिए जायेंगे। बच्चे मान ही नहीं रहे थे क्यूंकि उन्हे  अपने मित्रों से मिलने की जल्दी थी। अचानक ट्रैफिक पुलिस ने गाड़ी रोक ली। चेकिंग चल रही थी। गुजरात बॉर्डर के पास आम बात है चैकिंग। बन्दे ने ड्राइविंग लाइसेंस माँगा .पति ने दिखा दिया। गाड़ी के कागज़ मांगे दिखा दिए। २०१३ का आर.सी.  की हार्ड कॉपी नहीं मिल रही थी। और इसी बात को लेकर वह अड़ गया। हमने उससे कहा की कल तक पास के पुलिस स्टेशन में जमा करवा देंगे पर वह मानने को तैयार न था। तभी एक दूसरी गाड़ी आई और पुलिस  वाला उधर चला गया।  हमने  जान छूटती देखी  और सब समेट गाड़ी दौड़ा दी। लगभग दो किलोमीटर पहुँचकर पतिदेव को याद आया कि ड्राइविंग लाइसेंस  तो उसने वापस ही नहीं किया। वापिस वही पहुँचे  जहाँ चेकिंग चल रही थी। जब हमने ड्राइविंग लाइसेंस  माँगा तो वो देने को तैयार नहीं।बहुत कहासुनी के बाद दो सौ रुपये में ड्राइविंग लाइसेंस  वापिस मिला। हमने चैन की साँस ली और मैने कहा अब तो मंदिर जाना बनता है। तभी मेरा बेटा बोला 'माँ अब मंदिर में चढ़ावा मत चढ़ाना आप ' नमक के दरोगा ' को चढ़ावा चढ़ा चुकी हो। हिंदी विषय को पढ़ने में सदैव आनाकानी करने वाले बेटे के मुह से ये बात सुनकर सिर्फ यही निकला 'यही तो है प्रेमचंद की लेखनी  का चमत्कार। '

    शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

    थके दिमाग को कुछ आराम चाहिए 


    काश कुछ अलग होता
    दिन में रात और
    रात में दिन होता
     या कि रात गुलाबी
    और सांझ हरी
    तोता सुनहरा होता
    या कव्वा गोरा
    बेरंग इन्द्रधनुष
    रंगों से भरा आसमां होता
    बिन बादल बरसात
    या जमीं पर
    बादलों का घर होता 
    कुछ ऐसा होता कि सब
    गड़बड़ होता
    या वो ही सही होता
    या अलग  देखने का ढंग
    या  अलग दृष्टि कोण
    या  सोच में विस्तार
    सब गडमड
    सब गड़बड़ होता
    और वही सच होता
    काश कुछ अलग होता .

    मंगलवार, 2 जुलाई 2013

                              विश्वास उठ गया 
               अपनी गलतियों का दोष भाग्य और इश्वर  पर डालते जरा भी नहीं सोचते कि कभी हमारी गलतियों की इन्तहा होगी ?एक तूफान आया और सब अपने साथ बहा के गया।घर,लोग,पशु पेड़ ...हे ईश्वर,जरा भी दया नहीं आई।कितने बच्चे थे ,कितने बूढे  थे कितने लाचार थे।सबको लील लिया .....बहुत शिकायत है तुमसे भगवान ,मनुष्य की  इतनी गलतियों  को अनदेखा  किया और कर लेते .....

    यूँ तो मैं आज भी ,
    रोज़ .....
    दीप जलाती  हूँ 
    शंख बजाती  हूँ 
    बेलपत्र चढ़ाती  हूँ 
    मंत्रोच्चार के साथ 
    तुम्हारी आरती गाती हूँ ....
    पर तुम पर से 
    हे ईश्वर ......
    मेरा विश्वास उठ गया है. 
    आखिर हम 
    तुम्हारे बच्चे  ही तो थे. 
    तुम्हारे अपने ही तो थे 
    नादाँ थे ....
    अज्ञानी थे ....
    कुछ ज्यादा
    भी तो न किया था 
     पेड़ ही तो कटे थे 
    बांध ही तो बांधे थे 
    बस थोड़ी गंद ही तो बिखेरी थी 
    कुछ घर ही तो बनाये थे 
    कुछ पहाड़ ही तो हटाये थे 
    चलो नासमझ ही सही. 
    पर तुम भी
     कुछ कम न निकले 
    तुमने क्या किया 
    रौंद दिया 
    खोद दिया 
    तहस नहस किया 
    बेघर कर दिया 
    तुमपर अब आस्था न रही .
    तुम्हारी सहनशक्ति पर से 
    हे ईश्वर 
    मेरा विश्वास उठ गया।

    शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013



    हमारी आस्थाएँ 
                     मेरी ईश्वर  में गहरी  आस्था है।सुबह की गहमागहमी में घर का काम निबटाने  की जल्दी के बावजूद  नहाकर मंदिर में दीया  जरुर जलाती हूँ।धर्म में भी मेरी उतनी ही आस्था है क्यूंकि कही पढ़ा था कि  धर्म हमे बुराइयों से बचाता है,कर्त्तव्य निर्वाह के लिए प्रेरित करता है।सभी धर्म यही शिक्षा देते है आपस में प्रेम करो, दया करो ,ईर्ष्या  मत करो आदि-आदि।कहते है उम्र के साथ आस्था बढती है पर न जाने क्यों आजकल मुझे मन्दिरों  में जाना अच्छा  नहीं लगता।वहाँ  जाते ही एक ग्लानि  का अनुभव होता है।यूँ तो मेरे लिए मंदिर जाना कभी भी उपासना का पर्याय नहीं रहा पर यदा कदा  जाना खलता भी नहीं। आजकल न जाने क्यों मंदिर के प्रांगण में प्रवेश करते ही सारी  आस्था विलीन हो जाती है। 
                    मेरे घर के पास ही साईं मंदिर है .गुरुवार शाम होते ही लोगों की भीड़ जुटना शुरू हो जाती है।पहले मंदिर के बगीचे में जाने की अनुमति नहीं थी।मंदिर के पुजारी और माली ने सुंदर फूल लगा रखे  थे।शाम को भक्ति संगीत होता।भक्तगण आते और श्रद्धा  भाव से लौट जाते कि  अचानक पता चला। अब बगीचे का कार्यभार नगरपालिका के तहत आ गया है और बगीचा सार्वजनिक जनता के लिए खुल गया है।अब क्या था ,माँ के साथ एक दर्जन  बच्चों  की टोली, प्रेमी युगल , दादाजी और उनके मित्र,युवा खिलाड़ी अपना बैट- बॉल  लिए ,जिसे देखो मंदिर की ओर।सड़क पर फूल  की दुकान सज गयी ,फिर बलून और खिलौनों  की और अब तो चाट पकोड़ी भी मिलती है कि भक्त दर्शन का मज़ा ले और साथ में पिकनिक भी हो जाये।एक गाय वाली  भी अपनी दो गायों  के साथ कुछ हरी घांस लेकर आ गयी।जिनकी संख्या बढ़कर अब चार हो चुकी है क्यूंकि जो भक्त मंदिर में दर्शन करते थे वे गय्या माँ को भोजन कराकर आगे जाते।आखिर हमारे पुराणों में गाय को भोजन देने की परम्परा का बखान जो  है।मंदिर के प्रागंण में एक छोटा सा तालाब है जिसमें पहले रंगबिरंगी मछलिया तैरती थीं अब प्लास्टिक की बोतल  ,चिप्स के रेपर तैरते हैं। इधर उधर सूखे  गीले  फूल,भगवन को नहलाये पानी का फैलाव,गंदे पांव का कीचड़ ,प्रशाद में भिनभिनाती मक्खियाँ।कौन से भगवन इस गन्दगी के ढेर में रहते होंगे।अमूमन मंदिरों के आसपास गन्दगी फैली होना आम सी बात है।पता नहीं मंदिर और गन्दगी का क्या रिश्ता है?
               जिस प्रकार से आस्था में डूब हम जानवरों को खिलाते है तो एक बार भी हमे ख्याल नहीं आता कि ये भी तो जानवरों के प्रति अन्याय है।पक्षियों को रोटी डालते मेरे पडोसी न सिर्फ कबूतरों बल्कि कव्वों और गलिओं के कुत्तों को भी आमंत्रण दे बैठे कि लोगो ने उनके खिलाफ शिकायत दर्ज की। सुबह सवेरे कव्वों और कुत्तो का हुजूम जमा हो चद टुकडो के लिए लड़ता और वहाँ रहने वालों के लिए खासी परेशानी का कारण बन गये।क्या हम शिक्षित लोग भूल जाते है की इससे हम न सिर्फ उन निर्बोध जीवो पर अत्याचार कर रहे है बल्कि तरह तरह की बीमारियो  को भी आमंत्रण दे  रहे है।
          बचपन से एक निबंध लिखते आए  है -भारत त्योहारों का देश है। सच है ,हमारे त्योहारो कि एक गरिमा है। उसके कई मायने है.उन्हे मनाने का ढंग है और इनको मनाने के पीछे जो प्रयोजन है वे भी अनूठे और गहन है। ऐसा नहीं कि आज त्यौहार मनाये नहीं जाते  पर आज उनके अर्थ बदल गए है ,गरिमा बदल गयी है और यदि कहा जाये कि प्रयोजन भी बदल गए है तो गलत न होगा। डी.जे. कि धुन में थिरकते कदम न तो त्यौहार कि गरिमा का मान करते है ,नहीं बजने वाला संगीत उस त्यौहार कि प्रासंगिगता से सामंजस्य रखता है। फ़िल्मी तर्ज़ पर मनाये जाने वाले त्यौहार न प्रेम भाव के बंधन के परिचायक रह गए है न ही संस्कृति के वाहक। धर्म और त्योहारों कि ओट में निकलने वाले जुलुस और आयोजन हमारी संस्कृति को समाप्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। 
                गंगा ,यमुना आदि नदियों और सागरों को तो हम गन्दा कर ही चुके है, और उसका परिणाम भी भुगत रहे है पर आश्चर्य है कि  हम शिक्षित कहलाने वाले जीव किस आस्था के भंवर में खुद को डूबा रहे है ???
    ?

    रविवार, 10 मार्च 2013

    स्त्री 
    मैने हमेशा सुना कि  स्त्री-पुरुष एक गाड़ी के दो पहिये है और इश्वर की कृपा से इतनी भाग्यशाली रही कि  हमेशा एक स्त्री के रूप में सम्मान पाया .पिता,पति,भाई ,बेटा, मित्र सबने यथोचित सम्मान दिया पर समाज में हो रहे अत्याचार,लड़किओं के प्रति दुर्व्यवहार ने दिल को दुखी किया है.कहीं एक क्रोध और आक्रोश  की भावना उस वर्ग के प्रति भर उठती है जो नारी को सम्मान नहीं देते ,उन्हे किसी योग्य नहीं मानते .क्या उन्हे किसी व्यक्तित्व के अस्तित्व को ललकारने का अधिकार है 
    मैने कब तुम्हे,
    अधिकार दिया,
    इतना सब बतलाने का
    कि मैं क्या हूँ !
    अबला ,सबला 
    या दुर्गा या काली 
    के प्रतीकों से सजाने का .
    मैने कब तुम्हे,
    अधिकार दिया
    कि तुम पंडित बनो और मैं अज्ञानी. 
    तुम मालिक और मैं सेविका  
    तुम पुन्य के भागी और मैं अपराधी 
    तुम वंश के वाहक और मैं  विनाशी। 
    मैने कब तुम्हे  अधिकार  दिया ,
    इतने उपमानो को रचने का .
    अब बंद करो ये उपालंभ. 
    जीवन मुझको जीने दो  अपना 
    मैं जान गयी, कि  कौन हूँ मैं 
    पहचान गयी, अपना अस्तित्व 
    मैने  अब अपना अधिकार लिया 
    सब जान लिया सब मान लिया 
    क्या सही, गलत क्या जीवन में
    मुझको इसका अब भान है सब,
    अब और न कोई मुझे बताये
     कब तक  मुझको जीवन जीना है
    मुझको अपनी राह  में चलना  है  
    जब चाहूँ  राह  बदलने  दूँ मैं 
    मैने कब तुमको  अधिकार दिया 
    मेरी  राह बदलने का 
    चाहो  तो मेरे साथ चलो 
    लो हाथ ,हाथ में साथ चलो 
    बन साथी डग में साथ रहो 
    नारीत्व के पर्दे के पीछे 
    मेरे व्यक्ति को ललकारने का 
    मैने  न  तुम्हे अधिकार दिया .......