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रविवार, 30 सितंबर 2012


आज सुबह-सुबह एक कार्यक्रम देख रही थी.इमरान साक्षत्कार कर रहे थे जाने माने कलाकार विक्टर बनर्जी का..इसी दौरान उन्होंने  एक बहुत ही हृदयस्पर्शी कहानी सुनाई जो इस प्रकार है .....
   'उत्तराखंड  बचाओ आन्दोलन' के समय की बात है.विक्टर उस समय मसूरी में रह रहे थे और आन्दोलन में संलग्न थे, वे बताते हैं  कि  वे  उत्तराखंड के लोगों  के परिश्रमी और निर्मल व्यवहार से बहुत प्रभावित हैं  .उनका मानना है कि  वहां के लोगों  को ईश्वर  का आशीर्वाद है . एक दिन उनका दूधवाला उदय उनके पास आया और बोला साहब मैं  आपको ५ रूपये किलो दूध देता हूँ। रस्किन बोंड साहब को छह में देता हूँ और बाज़ार में सात रूपये में बेचता हूँ.आप मुझे ज्यादा नहीं दे  सकते तो कम से कम रस्किन साहब के बराबर तो दीजिये.विक्टर बहुत शर्मिंदा हुए और बोले मैं  भी यही सोच रहा था और यदि ऐसा है तो मैं  तुम्हारे साथ बहुत अन्याय कर रहा हूँ ..दरअसल मैं ४ साल से खाली बैठा हूँ . कुछ कमा नहीं रहा हूँ इसलिए अभी ६  तो नहीं दे सकता ...उनकी बात पूरी भी न हो पाई कि  उदय ने अपनी बीड़ी  का तेज़ कश लेते हुए कहा,
"ठीक है , साढ़े  चार दे देना...और निर्विकार भाव से चल दिया.  अनपढ़  मात्र दूधवाला और इतना विशाल ह्रदय .......मुझे गर्व है अपने लोगों  पर ....

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

           रोज़ ६.१५ का समय तय है .हम तीनों  नियमानुसार  निकल पडे.तय स्थान है जहाँ शाम को हम walk के लिए जाते है .walk के साथ talk  भी उसी speed से होता है पतियों की बुराई से लेकर बच्चों की पढाई और बाइयों का रोना .......दिन भर की हलचल......सबको साझा करने का वही समय है (ये अलग बात है कि पतले होने की बजाय हमारा वज़न बढ़ता जा रहा है ).
        कल की ही बात है निश्चित  समय पर हम निकल गए .अभी पहला चक्कर लगाते हुए ही हमने अपनी तारीफ की थी किहम अभी भी कितनी स्वस्थ है  हमारे कान आंख और हाथ पैर सब सही सलामत है वरना तो इस उम्र तक आते आते आजकल की महिलाएं रोगों को गले लगा लेती है (गोकि हम बहुत बुज़ुर्ग हों ) 
      थोडा झुटपुट हुआ ही था,बारिश के दिनों में यूँ भी अँधेरा जल्दी हो जाता है गणपति की चहलपहल थी .हम अपनी गप्पों में व्यस्त .... अंतिम चक्कर (कुछ इमारतों के चारों ओर बनी कच्ची  पक्की सड़क पर ही लोग walk   करते है)तभी पीछे से एक हाथ आया और मेरे साथ चल रही महिला के गले में पहनी  सोने की चैन खिंच ली जब तक समझ आता मैं  जोर  से चिल्लाई बाकी दोनों भी चिल्लाने लगी .वह व्यक्ति घबरा गया मैं व्  मेरी दूसरी सहेली उसके पीछे  भागी  घबराहट कि वज़ह से  चेन उसके हाथ से छुट गयी  काफी दूर तक हमने उसका पीछा किया पर वो भाग गया .
         जब ये घटना घटी उस समय जिस ओर वो भगा उस सड़क पर दो नौजवान थे....... थोड़ी दूरी पर दो watchman  बात कर रहे थे .......बिल्डिंग के पास एक महिला अपने  बच्चे को घुमा  रही थी .....सामने से दो अधेड़  उम्र पुरुष आ रहे थे ......सबने हमे सलाह दी कि सोना पहनकर मत निकला करो .......     

बुधवार, 12 सितंबर 2012

उम्र ..........

आओ समय मैं सहेज लूँ
बंद कर अपनी हथेली
ताउम्र न खुले ये पहेली .....
जान भी न पाए कोई
क्यों हुए  थे गाल  गुलाबी .
क्यों नशे में बंद आंखे
क्यों छाई  थी वो लाली।
याद कर कर के वो शर्माना .
बस  धीरे  से मुस्काना
कही खो जाना ,गुम  हो जाना
रातों को जागते रहना
उजाले में भी घबराना
कभी  बाते  न  करना 
कभी उड़ाने आसमानों की
कभी  महफिले सजती ,कभी  
न कोई साथी न सहेली
कोई कहता लड़कपन
कोई समझे मनमौजी
नाज़ुक सी उम्र के वो सपने
सुहाने मोड़ जीवन के
उम्र सोलह की वो अलबेली
आओ समय मैं सहेज लूँ
बंद कर अपनी हथेली
ताउम्र न  खुले ये पहेली।।।।।।।


मंगलवार, 11 सितंबर 2012

           फिर बेटी ने कहा
माँ मुझको भी आने दो, अपनी गोद सजाने दो 
बनकर आसमान में चंदा ,चांदनी से भर दूंगी 
बनकर असमान का सूरज ,मैं रौशनी कर दूंगी 
बनकर फूलों की पंखुडिया, अपनी गोद सजाने दो 
आने दो माँ ,आने दो माँ ,अपनी गोद सजाने दो
तितली बनकर आसपास ,जब मैं  लहराऊंगी
लाल लाल होठों से माँ - माँ कर गाऊँगी
रातों को न जगाउगी माँ ,तुमको न कभी सताउंगी
एक बार आने दो माँ, अपनी गोद सजाने दो 
मैं परछाई हूँ तुम्हारी,  कैसे खुद से दूर करोगी 
क्या लोगों के तानो से तुम ,अब भी डरोगी
मुझको मारकर -मरवाकर क्या तुम जी सकोगी 
मुझ को देकर जन्म माँ ,जीवन का गीत गाने दो .
एक बार आने दो माँ अपनी गोद सजाने दो  

रविवार, 2 सितंबर 2012

        कल अचानक उनकी मृत्यु का समाचार मिला .कुछ भी असामान्य  नहीं था. ८० की उम्र में मृत्यु .....सुनकर उतना दुःख नहीं होता.  हाँ अपनों को खोने  की कसक तो हमेशा रहती है.बहुत पहले मिलना हुआ था बुआ से पर फूफाजी से नहीं के बराबर मुलाकात होती. यू तो बुआ से रिश्ता कोई बहुत पास का न था पर उनके और हमारे परिवार के बीच सालों से प्रगाढ़ सम्बन्ध थे . .बुआ का स्वभाव ऐसा की परायों को भी अपना बना लें..पिताजी के कई  किस्सों में समायी बुआ  के लिए हमेशा सम्मान  रहा .उनकी बातें सुनने को हमेशा दिल करता. आज भी फूफाजी से ज्यादा बुआ के बारे में जानना चाहा क्या बुआ रोई.या बुआ ने कैसे दुःख व्यक्त किया....बुआ को देख कर हमेशा यही लगता कि दुःख और बुआ का कोई रिश्ता हो ही नहीं सकता (बुआ और दुखो का चोली दामन का साथ था )पर बुआ इतनी हिम्मती   थी कि  उनके दुखी होने की कल्पना  कभी की ही नहीं जा सकती...पेशे से वैज्ञानिक बुआ सदैव  हमारी प्रेरणा रही कि अचानक फूफाजी की  मृत्यु का समाचार ....
          कुछ भी असामान्य नहीं ८० की उम्र ......पूरी उम्र खायी है फूफाजी ने पर कुछ ऐसा कर गए फूफाजी की सर नतमस्तक  हो गया. बहन ने खबर दी फूफाजी अपना पार्थिव शरीर दान कर गए .सुना मेडिकल कॉलेज को दान कर दी अपनी देह ....कहकर कि  मैं  नास्तिक हूँ मैं  कर्म कांडों में विश्वास नहीं करता ...विस्वास नहीं होता ....समाज ने अस्वीकार कर दिया कही ऐसा होता है जब तक देह जलाई न जाये मुक्ति मिलती है ....पर बुआ फूफाजी के निर्णय पर अडिग रही कि  देह तो मेडिकल के विद्यार्थियों  की पढाई के ही काम आनी है ...अंतत फूफाजी के निर्णय  का सम्मान किया गया और पार्थिव देह रवाना  हुई मेडिकल कॉलेज को .फूफाजी आपने इस उम्र में भी आज़ादी की ६५वि वर्षगांठ को एक सच्चे  सिपाही की तरह देश को अपना सर्वस्व  दे दिया और हमे जीने और जीवन का महत्त्व सिखा दिया......श्रद्धांजलि