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शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

ज़िन्दगी

आओ उन पलों को  जी ले 
जो रेत की मानिंद सरक जाते है
 मुट्ठी को बंद करने से पहले.
उन सपनो को सजाले
इसी पल 
जो टूट जाते है
 आँख  खुलने से पहले.
जरा सी इस ज़िन्दगी की कहानी
 वक़्त बेवक्त ख़त्म हो जाएगी 
रह जायेंगे फकत 
उम्मीदों के समंदर में
 सीपी की तरह.  
गिरती उठती लहरों  की 
आगोश में समाने से पहले 
सजा ले उन्हे 
इन्द्रधनुष के रंगों  से.
याकि हरसिंगार के फूलों की लड़ी 
सोंधी मिटटी की खुशबू 
या कि वासंती बयार की महक 
चुन के सजा दे मांग ज़िन्दगी की .
नवोढ़ा दुल्हन सी 
जीने की ललक 
जगा दे ........
आओ इन पलों को 
जी ले इसी पल 
ज़िन्दगी के लिए ......

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012



स्त्री (१)

सृष्टि की   
एक अद्भुत रचना मैं 
इंसान ने मुझे 
औरत बना दिया .
जन्म से पूर्व ही 
जीवन से मुक्ति
 मेरा पर्याय बन गयी ,
बचपन में ही 
माँ ने मुझे 
मेरे भाई से मेरे फर्क होने की 
नीव डाल दी थी .
समर्पिता-त्यागमयी बनने की 
सीख दे दी थी .
मेरे जिम्मे चौका -बर्तन 
झाड़ू -पोछा आ  गया .
गोर्की और सिमोन बनने का सुख 
मेरे हाथों से चीन लिया गया .
अपने अबलापन का विद्रोह करने पर 
मुझे कुचल दिया जाने लगा 
मेरे निर्णयों पर पिता और भाई की 
मुहर लगने लगी .
मेरी शिक्षा 
विवाह का प्लेटफोर्म बन गयी .
गोकि मेरी डिग्रिया
अच्छे पति के लिए 
दहेज़ हों 
या कि पति की  आकांक्षाओं 
की पूर्ति के लिए 
पैसा कमाने की मशीन 
या उसका स्टेटस सिम्बल .
दहेज़ की  लम्बी फेहरिस्त
मेरा अस्तित्व बन गयी .
मेरे पिता ने 
मेरा विवाह कर 
अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली 
पति ने साड़ी गहनों से लाद
मुझे सुखी बना दिया .
भाई ने भाई दूज पर 
मोटी रकम भेज 
परंपरा का निर्वाह कर दिया .
बेटे का प्रतिमाह का मनिओर्देर 
उसके सपूत होने का सबूत बन गए .
और मैं  समेटती रह गयी 
.बिखराव -भटकाव ,
असंतुष्टि -अपमान 
त्रासदिमय  जीवन 
कितनी अजीब दास्ताँ है मेरी 
कि मैं औरत बन गयी ............
स्त्री (2)


मेरे बडे होने के साथ 
बौनी होती जा रही है .
मेरी परछाई 
मेरे आस पास की सीमारेखा 
दिन ब दिन घटती जा रही है .
घटता जा रहा है मेरा अस्तित्व 
मेरे बडे होने के साथ .
घुटती जा रही हूँ मैं ,
सिमटती जा रही हूँ मैं 
अपने आप में ...
बहुत से बन्धनों के जाल
मेरे आस पास 
दिन ब दिन  कसते जा रहे.
शर्मो हया की परिभाषा 
मेरे घर में अब 
बढती जा रही है .
मेरे पैरों को धीरे चलने की
 ताकीद  दी जा रही है .
मेरी हंसी पर 
दिन ब दिन पाबन्दी लगती जा रही है.
मेरी माँ
घर के खर्चों पर कटौती कर 
दहेज़ जमा कर रही है .
मेरे दिमाग में पी परमेश्वर का खाका 
खींचा जा रहा है.
पिता  के संरक्षण की देहरी लांघ 
ससुराल की कैद में 
भेजने का षड़यंत्र 
जोरशोर से रचा जाने लगा है 
और ससुराल में 
मुझे जलाने की 
सताने की 
कोशिशों के दौर पर 
चर्चा की जा रही है 
दिन ब दिन 
मुझे - मेरे अस्तित्व को 
समाप्त करने की योजना 
बन रही है 
मेरे बडे होने  के साथ ........
स्त्री(3)


वो बिहारी की नायिका नायिका नहीं
 'प्रसाद' की कामायनी नहीं
या फिर भवनों में प्रसादों में पलकर बढ़ी नहीं है.
 ऊँची अट्टालिकाओं में चड़ी  नहीं है
. मृगनयनी, पद्मिनी की उपाधियों से विभूषित नहीं है.
वो तो सावली सी
छोटी छोटी आँखों वाली
 काले होठ, मोटी नाक वाली है.
भीड़ भरे इस शहर में
 एक बस से दूसरी बस में चढ़ती
भरी दुपहरी में चप्पल चटकाती  
अपने दहेज़ के लिए
कुछ रुपये सहेजती
घर को सम्हालने वाली
उस समाज की नायिका है
जहाँ हर वक़्त अपमान से प्रताड़ित होना
उसका सौमाग्य है.
बार बार गिरकर जीना
उसकी नियति है
अपनी जिंदगी को बार बार जलाकर भी
खरा सोना नहीं बन पति है
 हर बार उसी रूप में
मुझे वो नज़र आती है.
स्त्री(4)

नारी का वास्तविक रूप 
वस्तुतः उस दिन देखा.
जब नन्हे कोमल हाथ
बिखरे बाल .
कागज़ और पेंसिल से
उलझने की कोशिश में 
आड़े -तिरछे चित्र बना रहे थे .
भविष्य की अनिश्चितता 
को ही शायद
 अंकित कर रहे हों .
या किशोरावस्था में 
खुरपी -कुटला उठाने का
 प्रयास व्यक्त कर रहे हों.
किसी अपरिचित युवा 
के साथ ब्याह की 
पूर्व परंपरा को निर्वाह कर 
बंधुवा मजदुर की तरह 
जीने के लिए 
मजबूरहोने की और 
संकेत  कर रहे हो 
विधाता ने इनका भाग्य
 अमिट रूप से लिखा है .
शायद कर्मवाद भी 
इसे बदल नहीं सकता 
क्यूंकि यही नियति 
इनके पिता /पूर्वजों ने 
निर्धारित की है .


वसंत  1
कुनकुनी धूप ने याद दिलाया 
लो, शायद  वसंत फिर आया .
पेड़ो की नई कोपले, 
सरसों की पीली चदरिया,  
आम के बौर,
वासंती बयार ,
 कोयल  के गीत,
 हुई पुरानी रीत
 मन  ने फिर भी गीत गया
 लो, शायद  फिर वसंत आया ........
शाम की रंगीनियों   में,
थिरकते कदमों के साथ ,
हाथ में गिलास थामे ,
बहुत से 'डे'  मनाते,
आता किसे है याद ,
कि वसंत आया.........
भाभी की देवरों के साथ, 
वो प्यारी सी छेड़-छाड़,
आंखों में मदहोशियाँ ,
यौवन की वो  बहार,
गले में बांधे,
 पीले पीले रुमाल, 
होली के मधुर गीत, 
हुई पुरानी रीत ,
मन ने फिर भी गीत गाया,
लो ,शायद वसंत आया........ 
 अचानक एस. एम् एस.के साथ 
किसी ने याद दिलाया 
लो, शायद वसंत आया ........






ओ  बसंत 11

ओ बसंत !
मुझे प्रतीक्षा है तुम्हारी 
हर क्षण .
हर पल .
क्यूंकि मुझे पसंद है .......
फूलों का खिलना ,
कोयल की कूक,
आम की बौर 
का आना .
ओ बसंत !
मुझे प्रतीक्षा है तुम्हारी ,
हर क्षण .
हर पल .
क्यूंकि मुझे पसंद है .......
मंद  हवा में ,
यूँ ही टहलना ,
गोधुली में,
 प्रवासिओं को लौटते देखना ,
ये सच है 
हाँ बसंत !
तुम आना 
यूँ ही ......
सदैव .
क्यूंकि तुम्हारे  आने से मेरे जीवन की 
उन्मुक्तता  लौट आती है .
बूढी होती 
मेरी मानसिकता ,
एक बार फिर यौवन की दहलीज़ 
में लौट आती है .
मेरे गाँव की याद 
मेरे शहरीपन  में 
छाने लगती है .
ढोलकों की थाप,
सरसों का लहलहाना 
याद आता है .
इसलिए 
ओ बसंत !
मुझे प्रतीक्षा है तुम्हारी ...........

वसंत  1
कुनकुनी धूप ने याद दिलाया 
लो, शायद  वसंत फिर आया .
पेड़ो की नई कोपले, 
सरसों की पीली चदरिया,  
आम के बौर,
वासंती बयार ,
 कोयल  के गीत,
 हुई पुरानी रीत
 मन  ने फिर भी गीत गया
 लो, शायद  फिर वसंत आया ........
शाम की रंगीनियों   में,
थिरकते कदमों के साथ ,
हाथ में गिलास थामे ,
बहुत से 'डे'  मनाते,
आता किसे है याद ,
कि वसंत आया.........
भाभी की देवरों के साथ, 
वो प्यारी सी छेड़-छाड़,
आंखों में मदहोशियाँ ,
यौवन की वो  बहार,
गले में बांधे,
 पीले पीले रुमाल, 
होली के मधुर गीत, 
हुई पुरानी रीत ,
मन ने फिर भी गीत गाया,
लो ,शायद वसंत आया........ 
 अचानक एस. एम् एस.के साथ 
किसी ने याद दिलाया 
लो, शायद वसंत आया ........

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012


मेरे बच्चे बडे हो गए  है 
मेरे बच्चे  बडे हो गए है ,  मेरा साथ अब उन्हे नहीं सुहाता 
क्यूंकि  अब वो मेरी उंगलिया थाम  कर नहीं चलते 
इसलिए कहते है कि मुझे चलना नहीं आता .
 क्यूंकि  अब शब्द उनको मिल गए है
 इसलिए गाहे बगाहे मेरा बोलना उन्हे नहीं भाता .
 क्यूंकि अब फैशन की समझ आ गयी है उन्हे 
इसलिए मेरा पहनावा उन्हे नहीं सुहाता .
मैने भी मान लिया है इसे सच
 क्यूंकि मैने भी यही किया था और 
दादी ने कहा था बेटा 
लकड़ी आगे जब जलती है धुआं है पीछे आता .....

बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

ज़िन्दगी  और सपने 
कोई खूबसूरत सी ग़ज़ल गायें, 
आ बारिशों के मौसम में नहायें
गुफ्तगू  जब करे बूंदें  जुल्फों से मेरी 
जान लेना कि बरसात  होने वाली  है
बादलों को गरजना घुमडना  है 
मिटटी की सोंधी गंध आने वाली है 
हरी भरी सी बगिया महकने वाली है 
इन्द्रधनुष के रंगों से सजेगा घर आंगन अपना 
जीवन में बहार आने वाली है .......
आ आँखों में सपने थोडे  और सजाएँ 
बारिशों में नहायें .प्यारी सी ग़ज़ल गायें 
एक बार ही मयस्सर है ज़िन्दगी 
कुछ रंग जमाये, गीत गुनगुनाएं...... 
कल की फुरसत  किसे  है ,
आज को जी ले ,आ सपने सजाएँ,  
 कोई खूबसूरत सी ग़ज़ल गायें .
आ बारिशों के मौसम में  नहायें ..............




सोमवार, 6 फ़रवरी 2012


अधूरी कविता 
अब  बरसात न होगी........
 रात में धूप दिन में चांदनी होगी 
ज्ञान की जगह धन की रौशनी होगी 
अब बरसात न होगी .........
 शीत में आम की बौर होगी 
रातों को गीत गाएगी कोयल 
नीम से बहेगी  कडवी हवा 
लता करेले की मीठी होगी 
अब  की बरसात न होगी ..........
नेता के घर साधू जन्मेगा 
साधू की लय कुछ और ही होगी 
मुह में राम बगल में छूरी
 कहावत अब यह सच होगी 
अब बरसात न होगी ........
सूरज जल बरसायेगा 
चाँद के मुह में आग होगी 
रेगिस्तान में नदी होगी 
अब बरसात न होगी .....
गगन में जल होगा 
जल में होगा थल 
पंछी रहेंगे सागर में 
मछलियाँ धरा में होंगी 
अब बरसात न होगी ....
नया जमाना नयी कहानी 
न होंगे नाना न नानी 
न रहेगी कोई कहानी 
जीवन की नयी राह होगी
शायद तब  अब बरसात न होगी .....

चेहरा 
अपने अक्स को छुपाया है 
कई तहों के बीच
प्याज़ की परतों के मांनिंद 
हर एक खुलती परत में
 नया अक्स नज़र आता है
कभी तन्हाई  कभी हंसी है होठों पे 
कभी आंसू कभी गमो की चादर ओढे 
कभी ललक तो कभी  ममता की छांह लिए
कभी  गुस्सा तो कभी आह लिए 
हर परत एक नया नगमा है 
ज़िन्दगी के गीत गाता जाता है 
कोई देखे तो अगर
 सबसे भीतर की परत 
बचपन  ही जैसे हर एक अक्स 
में नज़र आता है .......