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सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

                               मेरे बचपन का मुक्तेश्वर 
बचपन जीवन का वो खुबसूरत पल होता है जो बार बार अपनी स्मृति को गुदगुदाता है तो कभी एक अनजानी टीस से दिल को छलनी कर देता है .....मुझे लगता है कि मैं आज  तक अपने बचपन को,बचपन के साथियो को,उन खुबसूरत वादियों को समानांतर जी रही हूँ .रामलीला के आते ही मेरा दिल मचलने लगता है और मैं nostalgic  हो जाती हूँ कि  काश पंख होते तो जरुर अपने शहर हो आती .... उन सभी को समर्पित जो मेरी यादों की अविस्मृत अंग है                                                                        
                                                        
          हिमालय को चूमती सर्द हवा के गुनगुनाहट ,चिड़ियों  की चहचाहट ,सुरम्य पहाड़ी इलाका .हर पल नया,हर वर्ष नवीन ,हर मौसम सुहाना, हर क्षण प्रकृति अपनी अनूठी धरोहर के दर्शन देती है।इसलिए तो मन  बार- बार यहाँ भाग आता  है और हर बार यहाँ आने पर नए तरह का रोमांच......ऐसा लगता है कई बार देखी प्रकृति  में पिछली  बार कुछ अनदेखा  रह गया है.
         मन कभी नहीं भूल सकता यहाँ के त्योहारों को.दशहरे में कड़कती ठण्ड के बावजूद रामलीला की तैयारी।रामलीला  का इंतज़ार तो यहाँ बच्चे  ,बड़े,स्त्री-पुरुष सभी बड़ी बैचेनी से करते हैं . मुझे याद है रामलीला शुरू होते ही हम टोली बना लेते और शाम को यहाँ के अनोखे रामलीला मैदान में रामलीला होती और दिन में हम बच्चों की टोली रामलीला करती.आज भी 'रखियो लाज हमारी नाथ ' के बोल यदाकदा होठों पर उभर ही जाते है.महिलाओं  के हाथों में स्वेटरों  की सिलाईयाँ  हारमोनियम तथा तबले के थापों के साथ धीमी और तेज़ गति से चलती.नौ दिन की रामलीला में परिवार के एक एक जोड़ी स्वेटर नवीन डिज़ाइनो के साथ तैयार हो जाते मानो इन स्त्रियों के लिए रामलीला जाड़ों के आगमन की तैयारी हो.हम बच्चे एस अवसर में सबसे जल्दी माथे पर टीका  लगाने पर बहुत गर्व महसूस करते थे. त्रिशूल के आकार का यह टीका प्रत्येक रामलीला देखने आए बच्चे के माथे पर होता था .रामलीला के पात्रों  को तैयार करने के साथ-साथ  मेकअप  कलाकारों के जिम्मे हमें तैयार करने का काम भी अवश्य रहता और हम बच्चों की टोली के पहुँचते ही बिना खीजे हमारे माथे पर रामलीला का चिन्ह अंकित कर देते .
        चौबीस  दिसम्बर की सर्द रात का भी इस पहाड़ में कम महत्त्व नहीं था . चौपल्ली के नीचे बने गिरजाघर में इसु के जन्म की कहानी भी तो हम बच्चों  को जवानी याद थी.रामलीला के ख़त्म होते ही क्रिसमस के केक का इंतज़ार भी हमे कम नहीं रहता था.
मकर संक्रांति के दिन बर्फ से पटी धरती से बेपरवाह,गले में संतरे और खजूरों की माला पहने काले कौवा को चीख- चीख कर बुलाना भी सुखद खेल होता था.फागुन के आगमन पर ढोलक की थाप पर गाते महिला पुरुषों के गीत के बोल आज भी कानो में गूंजते है।शाम को खड़ी होली तथा दिन में कुनकुनी धुप में सफ़ेद साड़ी  में रंगों से सराबोर महिलाओं की व्यस्तता,आलू-गुटके,हलुवा,गुझिया तथा कालीमिर्च की चाय की चुस्कियां  होली के माहौल को और भी सरगर्म कर देती.
         केम्पस स्कूल के रूप में स्थापित  चिल्ड्रेन्स कॉर्नर यानि हमारे जीवन की पहली सीढ़ी....आज जब गुजरती हूँ वहां  से तो याद आ जाती है- बचपन की तुतलाती कविताएँ,जो अनायास ही कभी परियों के देश में हमें घुमा लाती थी या किसी बुढ़िया की कहानी,जो बर्फ की तरफ सफ़ेद सूत कातती थी.सांस्कृतिक कार्यक्रमों का अनूठापन  तो मुक्तेश्वर का पर्याय था।शायद ही यहाँ का कोई बच्चा  अच्छा  अभिनयकर्ता न हो.
       चैप्मन  आंटी के घर की अंग्रेजी की पढाई  भी तो हमारे जीवन की अभिन्न अंग थी.तीन  बजे स्कूल से घर पहुच नाश्ता करते ही शुरू हो जाती हमारी ट्यूशन  बनाम केक,पस्ट्री,टॉफी मिलने की जगह पहुचने की तेयारी .मोहन बाज़ार में हम सब बच्चों  की टोली जमा हो कर  ग्रोस्बाज़ार  की उन भीमकाय  चट्टानों पर माँ की हिदायतों के बावजूद उछलकूद  मचाने  से नहीं चूकती,जहाँ से नीचे देखने में आज मन  सिहर जाता है.
         एक ऐसी जगह है जहाँ  से आज भी गुजरते हुए  एक बार कदम थम से अवश्य जाते है।वो जगह है-अस्पताल।सबसे ज्यादा था सुई का डर,पर कर्नाटक बाबू की कृपादृष्टि  से मिला थोडा सा सिरप मानो अमृत हो।विक्स ,स्त्रेप्सिल  की गोलीं,सुई के दर्द को भुला देने की क्षमता रखती थी.
             शोध संस्थान होने  के कारण  देश के कोने- कोने से आए लोगों ने मानो एक छोटा सा भारत  इसी पहाड़ में जमा कर दिया है.अपनी-अपनी बोली का प्रभाव छोड़ कर यहाँ की कुमाउनी भाषा के प्रभाव में बंधे तेलगू,तमिल,मलयाली,बंगाली और देसी लोग (मैदानी)'के हाल है राइ','कास छा' या 'नन्तीन ठीक छान' कहना भी सीख ही जाते.
         बचपन में जब भी अपने रिश्तेदारों या परिचितों को चूहे ,खरगोश, गाय,घोडे दिखाने ले जाती थी तो पशु चिकित्सविद की बेटी होने का गर्व महसूस करती थी , आज तक नहीं भूलती हूँ जब पशुओं के आहार तथा क्रियाकलापों का एक -एक वर्णन इस प्रकार करती मानो वर्षों से में ही यहाँ शोध कर रही हूँ और अपने इस ज्ञान से भी उन्हे  वंचित नहीं होने देती कि जब गाय  कागज़ खाती है तो इसका कारण उनके शरीर  में फास्फोरस की कमी होती है या सीरम किस प्रकार बनाया जाता है.सोने के पानी में मढ़ी किताबों का महात्म्य भी बखूबी उनके सामने बांचा जाता.
            एक सुखद अनुभूति जो कभी विस्मृत नहीं हो सकती वो थी चावला  अंकल की सबसे पहले मुक्तेश्वर में आई कार में बैठने की अनुभूति.जो हमारे नन्हे मन को विमान में बैठे होने  का सुख देती.पश्मीना फार्म,सूर्मानी तक इस कार  में बैठे हम बच्चों  की अदभुत अंतरिक्षयान की यात्रा से कम नहीं होती थी.आज मिलने वाली सभी सुख सुविधाएं उन क्षनाभुतियों  के सामने नगण्य हैं.
            और भी क्या-क्या नहीं समेटा है मन  ने इस स्वर्ग से,क्या-क्या नहीं संजोया है आंखों ने धरती के कोने-कोने से,जो जन्म -जन्मान्तर  तक विस्मृत नहीं हो पायेगा. सोचती हूँ क्या  आज एक पल के लिए मिल पायेगा -----हमे हमारा  बचपन का मुक्तेश्वर. 

2 टिप्‍पणियां:

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  2. suna tha ki bastia banti aur ujad jati hai,
    suna tha ki shor bhi shanti mai kahi kho jata hai,
    per aaj maine dekha hai basi bastiyo mai jagah ko ujadte hue,
    dekha hai aaj shanti ko kahi shor mai khote hue,
    aaj socchta hu kya ye wohi jagah hai jaha mai khela pala bada hua,
    jaha pag pag mai meri tai, mausi , dada, didi mujhe milte the,
    jaha har chehre mai mere ristey khilte the,
    kya koi lauta sakta hai mujhe mere wo pyara sa ghar,
    kya koi de sakta hai mujhe wo mera purana MUKTESWER ...

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