बस यूँ ही आँख बंद किये
आँगन में बैठी
धूप पी रही थी
कि एक नन्ही सी तितली
काली पीली धब्बो वाली
बांह पर आकार बैठ गयी
और बार बार
पंख फडफडा कर
अपना अस्तित्व जताने की
कोशिश करती रही .
हवा का झोंका,
मेरी सांसो की गति,
उसे उड़ा न सकी
मैं उनींदी आँखों से
देखती रही उसे
निहारती रही
मैं हिलाना नहीं चाहती थी उसे
उड़ाना भी नहीं चाहा
न उसे पकड़ना चाहा
न उसे डराना चाहती थी
बस महसूस करती रही
प्रकृति के उस
अदभुत सौंदर्य को...........
सुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंधन्यवाद्
हटाएंप्रकृति तो अद्भुत सौंदर्य से भरी पडी है
जवाब देंहटाएंधन्यवाद्
हटाएंआखिर में यह अहसास ही रह जाता है, जो काम आता है।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद्
हटाएंप्रभावशाली रचना....
जवाब देंहटाएंधन्यवाद्
हटाएंप्रकृति की इन अनुपम रचनाओं को महसूस करने की बात कर आपने पर्यावरण के प्रति अपनी संवेदना का इज़हार बड़े सरल शब्दों में किया है।
जवाब देंहटाएंअच्छे भाव हैं...बधाई..
जवाब देंहटाएं---हाँ ,व्याकरणीय त्रुटि है...बांह में आकार बैठ गयी =बांह पर आकर .. होना चाहिए ..
ब्लॉग में आने के लिए धन्यवाद्
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