स्त्री
मैने हमेशा सुना कि स्त्री-पुरुष एक गाड़ी के दो पहिये है और इश्वर की कृपा से इतनी भाग्यशाली रही कि हमेशा एक स्त्री के रूप में सम्मान पाया .पिता,पति,भाई ,बेटा, मित्र सबने यथोचित सम्मान दिया पर समाज में हो रहे अत्याचार,लड़किओं के प्रति दुर्व्यवहार ने दिल को दुखी किया है.कहीं एक क्रोध और आक्रोश की भावना उस वर्ग के प्रति भर उठती है जो नारी को सम्मान नहीं देते ,उन्हे किसी योग्य नहीं मानते .क्या उन्हे किसी व्यक्तित्व के अस्तित्व को ललकारने का अधिकार है
मैने कब तुम्हे,
अधिकार दिया,
अधिकार दिया,
इतना सब बतलाने का
कि मैं क्या हूँ !
अबला ,सबला
या दुर्गा या काली
या दुर्गा या काली
के प्रतीकों से सजाने का .
मैने कब तुम्हे,
अधिकार दिया
अधिकार दिया
कि तुम पंडित बनो और मैं अज्ञानी.
तुम मालिक और मैं सेविका
तुम पुन्य के भागी और मैं अपराधी
तुम वंश के वाहक और मैं विनाशी।
मैने कब तुम्हे अधिकार दिया ,
इतने उपमानो को रचने का .
अब बंद करो ये उपालंभ.
जीवन मुझको जीने दो अपना
मैं जान गयी, कि कौन हूँ मैं
पहचान गयी, अपना अस्तित्व
मैने अब अपना अधिकार लिया
सब जान लिया सब मान लिया
क्या सही, गलत क्या जीवन में
मुझको इसका अब भान है सब,
अब और न कोई मुझे बताये
कब तक मुझको जीवन जीना है
मुझको अपनी राह में चलना है
जब चाहूँ राह बदलने दूँ मैं
मैने कब तुमको अधिकार दिया
मेरी राह बदलने का
चाहो तो मेरे साथ चलो
लो हाथ ,हाथ में साथ चलो
बन साथी डग में साथ रहो
नारीत्व के पर्दे के पीछे
नारीत्व के पर्दे के पीछे
मेरे व्यक्ति को ललकारने का
मैने न तुम्हे अधिकार दिया .......
Bahut badhiya likha hai!
जवाब देंहटाएंबहुत सही लिखा है रीना जी-
जवाब देंहटाएंबेबाक खयालात. संबंधों में एक संतुलन आवश्यक है अन्यथा गाडी पटरी से उतर जाती है.
जवाब देंहटाएंबिलकुल , यह अधिकार मेरा है !
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण अभिव्यक्ति !
ATI SUNDAR ABHIVYKTI..... DHNYAWAD
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी...सटीक रचना
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