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मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

 रामलीला : मुक्तेश्वर की 

(भाग - २ )'


'रखियो लाज हमारी नाथ ,दीना नाथ गणपति नाथ 'तबले की थाप और हारमोनियम के लहरे पर शुरूआत होती शारदीय नवरात्रि की रामलीला की, कहीं भीतर तक मीठी टीस सी उमड़ आती है।कितने रंगों के साथ उमड़ती है एक हौल सी । जिसमें ममत्व है ,प्रेम है ,ईर्ष्या है,राग है ,द्वेष है ,अहं है , विनय है।जीवन की तरलता है ,सहजता है ।


 मुंबई ,अहमदाबाद,भरूच में गरबा में डूबी रूह अब तक रामलीला के मोह में फंसी है।


उन दिनों मनोरंजन के सीमित साधनों के चलते रामलीला का बड़ा महत्व था। नवरात्रि के पहले दिन से शुरु होकर दशमी को भरत मिलाप तक आबाल- वृद्ध  व्यस्त रहते।


मुक्तेश्वर की रामलीला कई मायनों में अलग थी।स्टेज के काफी आगे के क्षेत्र को लकड़ी की पतली बल्लियों से घेर कर स्टेज को विस्तार दिया जाता ।सामने जमीन पर दरी बिछी होती जिसमें सिर्फ छोटे बच्चों को बैठने दिया जाता ।स्टेज के दाईं ओर एक पटखाट में तबला, हारमोनियम,मंजीरा ,ढोलक वादक बैठते ।उनके पीछे कलाकार और रामलीला के कार्यकर्ताओं के बैठने के लिए कुर्सियां होतीं।बाईं ओर आई वी आर आई के अफसर और उनके परिवारों के बैठने की व्यवस्था होती।बाकी जनता के लिए सीढ़ीनुमा खेतों पर बैठने का इंतजाम होता ।कालांतर में कच्चे स्टेज को बाद में सिमेंट का फर्श बनाकर पक्का कर दिया था।ओस से भीगी घास पर दरी बिछाकर कंबल ,रजाई ओढ़कर बारह एक बजे तक रामलीला चलती ।स्टेज से सटे हुए मैदान में जलेबी ,समोसा ,चाय ,गुलाब जामुन की खुशबू बनी रहती ।धीरे धीरे विस्तार हुआ और खिलौने,कपड़ों की दुकानें भी लगने लगीं।


सन् 1954 में शुरू हुई रामलीला पहले मोहन बाजार में होती ,बाद में आई. वी. आर. आई. कैंपस में होने लगी ।इस रामलीला को देखने सीतला ,ओढ़ाखान,सतबुंगा,सुहाने,प्यूड़ा जैसे दूरदराज़ के गांव से तो लोग आते ही विदेश से भी  लोग आते।


स्टेज की साज-सज्जा से लेकर कलाकारों को तैयार करने में आई.वी.आर.आई के कर्मचारी होते थे। दिनभर औफिस के काम के बाद रामलीला का काम । रामजन्म,ताड़का वध,राम सीता विवाह,राम वनवास ,लक्ष्मण शक्ति,सीता हरण ,भरत मिलाप रामलीला कुछ विशेष आकर्षण थे।


कुछ दृश्य मेरे जेहन में जब के तस हैं।मेरे ओंठ बुदबुदाने लगते हैं हर शाम करछी से सब्जी चलाते हुए-


"पिताजी कैसे व्याकुल हैं , हमें माता बता दीजै।

हुआ अपराध क्या हमसे ,क्षमा हमको दिला दीजै।

(राम वनवास के दौरान राम द्वारा )


गत्ते की बनी नाव ,पर्दे के पीछे लहराती धोतियां सागर का सीन क्रिएट करतीं और धन्न से तबला, हारमोनियम के साथ आवाज आती -

नमो गंगे तरंगें पाप हारी ,सदा जय ,सदा जय हो तुम्हारी।

(समुद्र पार करने के दौरान गाया जाने वाला कोरस)


नासमझी के बहुत सालों तक मैंने अपनी शादी का यही स्वप्न सजाया था ।स्वयंवर होगा ,राम जैसा वर आएगा धनुष टूटेगा -

आयषु दीजै कृपा निधाना , देखूं ये शंकर चाप पुराना।

(स्वयंवर में राम द्वारा विश्वामित्र से आग्रह)


उस समय गाई जाने वाली चौपाइयों में सबसे सुरीली चौपाई होती थी राम सीता के वनवास से पहले के संवाद की -

स्वामी मोहे वन में ले जाना होगा।

सिया दुख वन में उठाना होगा।

सीता के हरण पर विरह गीत पर  दर्शकों की आंखों में आंसू उमड़ आते 

घन घमंड नभ गरजत घोरा। 

और 

सूर्पनखा के गीत पर कदम  थिरकते ।

मैं छोड़ आई लंका का राज, लखनलाल तेरे लिए 


संदेश पवनसुत तुम ,सिया प्यारी से कह देना।

(हनुमान अंगूठी लेकर सीता के पास जा रहे हैं।)


भरत मिलाप चौपल्ली में होता था ।ट्रैक्टर में राम ,सीता ,लक्ष्मण की सजी झांकी आती ,वापसी में राजसी वेशभूषा में सजे चारों भाई , तीनों रानियों सहित हम प्रजा का विहंगम दृश्य कभी लुप्त नहीं हो सकता।


पिताजी बताते अगले दिन हवन होता सभी कलाकार इकट्ठे होते और जिन किरदारों का उन्होंने मंचन किया होता उनसे  क्षमा मांगते कि मंचन के दौरान अगर हमसे कोई गलती हो गई हो तो क्षमा करें।


अद्भुत यादें हैं । नवरसों का अनोखा संगम ,सामान्य लोगों द्वारा की गई अनुपम रंगमंच प्रस्तुति ।बिना औपचारिक ट्रैनिंग के बरसों बरसों तक जादुई छड़ी घुमाकर अपने अभिनय का मुरीद बनाने वाले कलाकारों को नमन।

-रीना पंत


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