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रविवार, 10 जुलाई 2011



वो बिहारी की नायिका नायिका नहीं
 'प्रसाद' की कामायनी नहीं
या फिर भवनों में प्रसादों में पलकर बढ़ी नहीं है.
 ऊँची अट्टालिकाओं में चड़ी  नहीं है
. मृगनयनी, पद्मिनी की उपाधियों से विभूषित नहीं है.
वो तो सावली सी
छोटी छोटी आँखों वाली
 काले होठ, मोटी नाक वाली है.
भीड़ भरे इस शहर में
 एक बस से दूसरी बस में चढ़ती
भरी दुपहरी में चप्पल चटकाती  
अपने दहेज़ के लिए
कुछ रुपये सहेजती
घर को सम्हालने वाली
उस समाज की नायिका है
जहाँ हर वक़्त अपमान से प्रताड़ित होना
उसका सौमाग्य है.
बार बार गिरकर जीना
उसकी नियति है
अपनी जिंदगी को बार बार जलाकर भी
खरा सोना नहीं बन पाती  है
 हर बार उसी रूप में
मुझे वो नज़र आती है.

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