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शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013



हमारी आस्थाएँ 
                 मेरी ईश्वर  में गहरी  आस्था है।सुबह की गहमागहमी में घर का काम निबटाने  की जल्दी के बावजूद  नहाकर मंदिर में दीया  जरुर जलाती हूँ।धर्म में भी मेरी उतनी ही आस्था है क्यूंकि कही पढ़ा था कि  धर्म हमे बुराइयों से बचाता है,कर्त्तव्य निर्वाह के लिए प्रेरित करता है।सभी धर्म यही शिक्षा देते है आपस में प्रेम करो, दया करो ,ईर्ष्या  मत करो आदि-आदि।कहते है उम्र के साथ आस्था बढती है पर न जाने क्यों आजकल मुझे मन्दिरों  में जाना अच्छा  नहीं लगता।वहाँ  जाते ही एक ग्लानि  का अनुभव होता है।यूँ तो मेरे लिए मंदिर जाना कभी भी उपासना का पर्याय नहीं रहा पर यदा कदा  जाना खलता भी नहीं। आजकल न जाने क्यों मंदिर के प्रांगण में प्रवेश करते ही सारी  आस्था विलीन हो जाती है। 
                मेरे घर के पास ही साईं मंदिर है .गुरुवार शाम होते ही लोगों की भीड़ जुटना शुरू हो जाती है।पहले मंदिर के बगीचे में जाने की अनुमति नहीं थी।मंदिर के पुजारी और माली ने सुंदर फूल लगा रखे  थे।शाम को भक्ति संगीत होता।भक्तगण आते और श्रद्धा  भाव से लौट जाते कि  अचानक पता चला। अब बगीचे का कार्यभार नगरपालिका के तहत आ गया है और बगीचा सार्वजनिक जनता के लिए खुल गया है।अब क्या था ,माँ के साथ एक दर्जन  बच्चों  की टोली, प्रेमी युगल , दादाजी और उनके मित्र,युवा खिलाड़ी अपना बैट- बॉल  लिए ,जिसे देखो मंदिर की ओर।सड़क पर फूल  की दुकान सज गयी ,फिर बलून और खिलौनों  की और अब तो चाट पकोड़ी भी मिलती है कि भक्त दर्शन का मज़ा ले और साथ में पिकनिक भी हो जाये।एक गाय वाली  भी अपनी दो गायों  के साथ कुछ हरी घांस लेकर आ गयी।जिनकी संख्या बढ़कर अब चार हो चुकी है क्यूंकि जो भक्त मंदिर में दर्शन करते थे वे गय्या माँ को भोजन कराकर आगे जाते।आखिर हमारे पुराणों में गाय को भोजन देने की परम्परा का बखान जो  है।मंदिर के प्रागंण में एक छोटा सा तालाब है जिसमें पहले रंगबिरंगी मछलिया तैरती थीं अब प्लास्टिक की बोतल  ,चिप्स के रेपर तैरते हैं। इधर उधर सूखे  गीले  फूल,भगवन को नहलाये पानी का फैलाव,गंदे पांव का कीचड़ ,प्रशाद में भिनभिनाती मक्खियाँ।कौन से भगवन इस गन्दगी के ढेर में रहते होंगे।अमूमन मंदिरों के आसपास गन्दगी फैली होना आम सी बात है।पता नहीं मंदिर और गन्दगी का क्या रिश्ता है?
           जिस प्रकार से आस्था में डूब हम जानवरों को खिलाते है तो एक बार भी हमे ख्याल नहीं आता कि ये भी तो जानवरों के प्रति अन्याय है।पक्षियों को रोटी डालते मेरे पडोसी न सिर्फ कबूतरों बल्कि कव्वों और गलिओं के कुत्तों को भी आमंत्रण दे बैठे कि लोगो ने उनके खिलाफ शिकायत दर्ज की। सुबह सवेरे कव्वों और कुत्तो का हुजूम जमा हो चद टुकडो के लिए लड़ता और वहाँ रहने वालों के लिए खासी परेशानी का कारण बन गये।क्या हम शिक्षित लोग भूल जाते है की इससे हम न सिर्फ उन निर्बोध जीवो पर अत्याचार कर रहे है बल्कि तरह तरह की बीमारियो  को भी आमंत्रण दे  रहे है।
      बचपन से एक निबंध लिखते आए  है -भारत त्योहारों का देश है। सच है ,हमारे त्योहारो कि एक गरिमा है। उसके कई मायने है.उन्हे मनाने का ढंग है और इनको मनाने के पीछे जो प्रयोजन है वे भी अनूठे और गहन है। ऐसा नहीं कि आज त्यौहार मनाये नहीं जाते  पर आज उनके अर्थ बदल गए है ,गरिमा बदल गयी है और यदि कहा जाये कि प्रयोजन भी बदल गए है तो गलत न होगा। डी.जे. कि धुन में थिरकते कदम न तो त्यौहार कि गरिमा का मान करते है ,नहीं बजने वाला संगीत उस त्यौहार कि प्रासंगिगता से सामंजस्य रखता है। फ़िल्मी तर्ज़ पर मनाये जाने वाले त्यौहार न प्रेम भाव के बंधन के परिचायक रह गए है न ही संस्कृति के वाहक। धर्म और त्योहारों कि ओट में निकलने वाले जुलुस और आयोजन हमारी संस्कृति को समाप्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। 
            गंगा ,यमुना आदि नदियों और सागरों को तो हम गन्दा कर ही चुके है, और उसका परिणाम भी भुगत रहे है पर आश्चर्य है कि  हम शिक्षित कहलाने वाले जीव किस आस्था के भंवर में खुद को डूबा रहे है ???
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7 टिप्‍पणियां:

  1. बिलकुल मेरे मन की बात लिख दी है..ऐसे में श्रद्धा कैसे उपजे

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  2. सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति . हार्दिक आभार नवसंवत्सर की बहुत बहुत शुभकामनायें हम हिंदी चिट्ठाकार हैं

    BHARTIY NARI
    PLEASE VISIT .

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  3. सार्थक बात कही है वाकई श्रद्धा दिल और मन से उपजती है
    बधाई

    आग्रह है मेरे ब्लॉग का अनुसरण करें
    ओ मेरी सुबह--
    http://jyoti-khare.blogspot.in

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