जो लिखी थी नज़्म कभी तेरे नाम की
वो आज तेरे नाम कर रही हूँ .
देरी में ही सही कागजे कलम कर रही हूँ .
बीते हुए लम्हे यूँ ही बिखर जाएँ न कही
आज एक बार फिर से उन्हे कैद कर रही हूँ .
सजाये थे जो पल सपनो में कभी
आज उनको शहरे आम कर रही हूँ.
तुझे गम औ गिला हो कि न हो
तुझे गम औ गिला हो कि न हो
तू पढे न पढे ये कलाम कोई फर्क नहीं
बस ये नज़्म मै तेरे नाम कर रही हूँ .
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें