स्त्री (१)
सृष्टि की
एक अद्भुत रचना मैं
इंसान ने मुझे
औरत बना दिया .
जन्म से पूर्व ही
जीवन से मुक्ति
मेरा पर्याय बन गयी ,
बचपन में ही
माँ ने मुझे
मेरे भाई से मेरे फर्क होने की
नीव डाल दी थी .
समर्पिता-त्यागमयी बनने की
सीख दे दी थी .
मेरे जिम्मे चौका -बर्तन
झाड़ू -पोछा आ गया .
गोर्की और सिमोन बनने का सुख
मेरे हाथों से चीन लिया गया .
अपने अबलापन का विद्रोह करने पर
मुझे कुचल दिया जाने लगा
मेरे निर्णयों पर पिता और भाई की
मुहर लगने लगी .
मेरी शिक्षा
विवाह का प्लेटफोर्म बन गयी .
गोकि मेरी डिग्रिया
अच्छे पति के लिए
दहेज़ हों
या कि पति की आकांक्षाओं
की पूर्ति के लिए
पैसा कमाने की मशीन
या उसका स्टेटस सिम्बल .
दहेज़ की लम्बी फेहरिस्त
मेरा अस्तित्व बन गयी .
मेरे पिता ने
मेरा विवाह कर
अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली
पति ने साड़ी गहनों से लाद
मुझे सुखी बना दिया .
भाई ने भाई दूज पर
मोटी रकम भेज
परंपरा का निर्वाह कर दिया .
बेटे का प्रतिमाह का मनिओर्देर
उसके सपूत होने का सबूत बन गए .
और मैं समेटती रह गयी
.बिखराव -भटकाव ,
असंतुष्टि -अपमान
त्रासदिमय जीवन
कितनी अजीब दास्ताँ है मेरी
कि मैं औरत बन गयी ............
स्त्री (2)
मेरे बडे होने के साथ
बौनी होती जा रही है .
मेरी परछाई
मेरे आस पास की सीमारेखा
दिन ब दिन घटती जा रही है .
घटता जा रहा है मेरा अस्तित्व
मेरे बडे होने के साथ .
घुटती जा रही हूँ मैं ,
सिमटती जा रही हूँ मैं
अपने आप में ...
बहुत से बन्धनों के जाल
मेरे आस पास
दिन ब दिन कसते जा रहे.
शर्मो हया की परिभाषा
मेरे घर में अब
बढती जा रही है .
मेरे पैरों को धीरे चलने की
ताकीद दी जा रही है .
मेरी हंसी पर
दिन ब दिन पाबन्दी लगती जा रही है.
मेरी माँ
घर के खर्चों पर कटौती कर
दहेज़ जमा कर रही है .
मेरे दिमाग में पी परमेश्वर का खाका
खींचा जा रहा है.
पिता के संरक्षण की देहरी लांघ
ससुराल की कैद में
भेजने का षड़यंत्र
जोरशोर से रचा जाने लगा है
और ससुराल में
मुझे जलाने की
सताने की
कोशिशों के दौर पर
चर्चा की जा रही है
दिन ब दिन
मुझे - मेरे अस्तित्व को
समाप्त करने की योजना
बन रही है
मेरे बडे होने के साथ ........
स्त्री(3)बौनी होती जा रही है .
मेरी परछाई
मेरे आस पास की सीमारेखा
दिन ब दिन घटती जा रही है .
घटता जा रहा है मेरा अस्तित्व
मेरे बडे होने के साथ .
घुटती जा रही हूँ मैं ,
सिमटती जा रही हूँ मैं
अपने आप में ...
बहुत से बन्धनों के जाल
मेरे आस पास
दिन ब दिन कसते जा रहे.
शर्मो हया की परिभाषा
मेरे घर में अब
बढती जा रही है .
मेरे पैरों को धीरे चलने की
ताकीद दी जा रही है .
मेरी हंसी पर
दिन ब दिन पाबन्दी लगती जा रही है.
मेरी माँ
घर के खर्चों पर कटौती कर
दहेज़ जमा कर रही है .
मेरे दिमाग में पी परमेश्वर का खाका
खींचा जा रहा है.
पिता के संरक्षण की देहरी लांघ
ससुराल की कैद में
भेजने का षड़यंत्र
जोरशोर से रचा जाने लगा है
और ससुराल में
मुझे जलाने की
सताने की
कोशिशों के दौर पर
चर्चा की जा रही है
दिन ब दिन
मुझे - मेरे अस्तित्व को
समाप्त करने की योजना
बन रही है
मेरे बडे होने के साथ ........
वो बिहारी की नायिका नायिका नहीं
'प्रसाद' की कामायनी नहीं
या फिर भवनों में प्रसादों में पलकर बढ़ी नहीं है.
ऊँची अट्टालिकाओं में चड़ी नहीं है
. मृगनयनी, पद्मिनी की उपाधियों से विभूषित नहीं है.
वो तो सावली सी
छोटी छोटी आँखों वाली
काले होठ, मोटी नाक वाली है.
भीड़ भरे इस शहर में
एक बस से दूसरी बस में चढ़ती
भरी दुपहरी में चप्पल चटकाती
अपने दहेज़ के लिए
कुछ रुपये सहेजती
घर को सम्हालने वाली
उस समाज की नायिका है
जहाँ हर वक़्त अपमान से प्रताड़ित होना
उसका सौमाग्य है.
बार बार गिरकर जीना
उसकी नियति है
अपनी जिंदगी को बार बार जलाकर भी
खरा सोना नहीं बन पति है
हर बार उसी रूप में
मुझे वो नज़र आती है.
स्त्री(4)नारी का वास्तविक रूप
वस्तुतः उस दिन देखा.
जब नन्हे कोमल हाथ
बिखरे बाल .
कागज़ और पेंसिल से
उलझने की कोशिश में
आड़े -तिरछे चित्र बना रहे थे .
भविष्य की अनिश्चितता
को ही शायद
अंकित कर रहे हों .
या किशोरावस्था में
खुरपी -कुटला उठाने का
प्रयास व्यक्त कर रहे हों.
किसी अपरिचित युवा
के साथ ब्याह की
पूर्व परंपरा को निर्वाह कर
बंधुवा मजदुर की तरह
जीने के लिए
मजबूरहोने की और
संकेत कर रहे हो
विधाता ने इनका भाग्य
अमिट रूप से लिखा है .
शायद कर्मवाद भी
इसे बदल नहीं सकता
क्यूंकि यही नियति
इनके पिता /पूर्वजों ने
निर्धारित की है .
Bahut bahut accchi kavita likhi hai
जवाब देंहटाएंdhanyawad
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